Friday, July 22, 2016

लाइफ मैनेजमेंट: अच्छे व्यक्ति में बदलते रिश्तों की समझ होती है

एन. रघुरामन (मैनेजमेंटगुरु)

सुबह 4.25 बजे का वक्त था। दिन था 7 जनवरी, 1996। चेन्नई के दूर के उपनगर तांबरम में हल्की सर्दी का दौर था, जिसमें गर्म कॉफी पीने की खासतौर पर बुजुर्गों को, इच्छा हो जाए। राजी शंकरन को मालूम था कि उनके 91 वर्षीय श्वसूर जगदेशन इसके अपवाद नहीं हैं, जो अल्जाइमर रोग के चरम दौर से गुजर रहे थे। एक दिन पहले ही वे हफ्ते भर के लिए उनके यहां आए थे, क्योंकि जगदेशन का परिवार किसी विवाह के लिए दूसरे उपनगर में इकट्‌ठा हो रहा था। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। जब वे गरम कॉफी लेकर वहां पहुंचीं तो उन्हें नदारद देखकर हक्की-बक्की रह गईं। दो युवा बच्चों के साथ उन्होंने सभी संभव जगहों पर उनकी खोज की, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। शाम 7 बजे तक तो पड़ोसियों की मदद से पूरा उपनगर छान मारा गया, लेकिन उनका पता नहीं लगा। विवाह समारोह के लिए जुटे लोगों को भी सूचना दी गई। पूरे महानगर में खोजबीन की गई, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। विवाह समारोह में सिर्फ जरूरी लोग ही रह गए, शेष सारे जगदेशन की खोज में लग गए। मुझे अब भी अच्छी तरह याद है कि खोजी दल के साथ जुड़ी 12 साल की उनकी पोती ने अचानक गुजरते हुए हाथी को छुआ और कामना की कि लौट आने के लिए दादाजी की स्मृति जाग जाए। वह भी क्या प्रार्थना थी! उसने अपने दादाजी, जो एक मानव थे, के लिए ऐसे प्राणी से स्मृति मांगी जो कभी भूलता नहीं। 
राजी को यह सूझा था कि लैंडलाइन फोन से अस्पतालों में पता लगाया जाए, लेकिन रात 9 बजे जाकर उन्हें सूचना मिली कि एक वृद्ध व्यक्ति को शाम के छुटपुटे में घायल अवस्था में भर्ती किया गया है। खोजी दलों के सभी लोगों को धीरे-धीरे सूचना मिली और सारे लोग जगदेशन के पास पहुंच गए, जो डॉक्टर के साथ बतिया रहे थे अौर अपने बारे में पूरा बोध खो चुके थे, जो हमारे अस्तित्व का आधार है। यह याद कर मैं सोचने लगा कि 'होने' का यह बोध जब चला जाता है, क्या तब भी वह व्यक्ति हमारे साथ होता है? या वह सिर्फ एक खोखला खोल होता है, किसी की खाली याद, जो हमेशा के लिए खो गया है। वह दृश्य कौन भूल सकता है जब राजी गुस्से में भरी अस्पताल में बुजुर्ग को कुछ नसीहतें देने के इरादे से पहुंचीं और बुजुर्ग उन्हें देखते हुए बोले, 'अम्मा, मुझे खाने को दो भूख लगी है।' चूंकि अब जगदेशन उन्हें ऐसी महिला के रूप में जानते हैं जो भूखे को भोजन देती हैं- एक मां। यह सुनकर राजी की आंखों में आंसू गए। 
इसी भावना से मैं गुजरा जब बुधवार को मैंने क्राउड फंडिंग से बनी पहली मराठी फिल्म 'अस्तु' देखी। डॉ. मोहन आगाशे द्वारा अभिनीत एक अधिकारी की मार्मिक कहानी, जो अल्जाइमर से पीड़ित है और एक हाथी उसके महावत के पीछे-पीछे जाकर 24 घंटे के लिए लापता हो जाता है। 'अस्तु' की शुरुआत में एक पात्र कहता है, 'सत्य हमेशा चेतना से उपजता है। जहां चेतना नहीं होती, वहां कोई सत्य नहीं होता।' ये पक्तियां फिल्म का आधार है। कहानी घटनाओं की शृंखला से गुजरते हुए वैचारिक और दार्शनिक बहस तक पहुंचती है कि मानव होने का मतलब क्या है और इस दौरान परिवार के बुजुर्ग युवा सदस्यों के बीच रूपांतरित होते रिश्ते की बात होती जाती है, खासतौर पर तब बुजुर्ग को अलजाइमर जैसा कोई रोग हो जाए। 
मेरे लिए तो फिल्म ने अल्जाइमर को चरणबद्ध ढंग से प्रस्तुत किया है और जगदेशन, जो संयोग से मेरे ग्रैंडफादर थे, और उनके परिवार को पहुंची पीड़ा को व्यक्त किया है। फिल्म पिता पुत्री के बीच रिश्ते और उस रिश्ते को उलटी भूमिका-बच्चे मां- के रिश्ते में विकसित होने की जरूरत की कहानी कहती है। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com

साभार: भास्कर समाचार 
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