Friday, July 22, 2016

प्राथमिक शिक्षा की बदहाली: कहीं व्यवस्था की कमी तो कहीं ......

पीयूष द्विवेदी:टी एस सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2016 पर सुझाव देने के लिए गठित आयोग ने जबसे अपनी रिपोर्ट मानव संसाधन मंत्रालय को सौंपी है, तब से देश में नई शिक्षा नीति के सम्बन्ध में चर्चा शुरू हो गई है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कई सिफारिशें की हैं, जिनमें कुछ सिफारिशें जैसे कि शिक्षा की
गुणवत्ता, कोचिंग के बढ़ते चलन और आधारभूत संरचना पर ध्यान केन्द्रित करने तथा पांचवी तक बच्चों को फेल नहीं करने की नीति की समीक्षा करने आदि प्रावधान तो अत्यंत अध्ययनपूर्ण और धरातल पर मौजूद शैक्षिक समस्याओं को प्रतिसूचित करने वाले हैं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। आयोग की विशेष दृष्टि प्राथमिक शिक्षा पर रही है और होनी भी चाहिए। क्योंकि प्राथमिक शिक्षा ही समूची शिक्षा व्यवस्था की नींव होती है। अब यदि नींव मजबूत होगी तभी तो उस पर ज्ञान की मजबूत इमारत बनेगी। इस बात को अगर भारत के सम्बन्ध में देखें तो भारत की प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में अगर कुछ खूबियां हैं तो बहुत सारी खामियां भी हैं। आयोग ने अपनी सिफारिशों में उनमें से तमाम खामियों पर ध्यान आकर्षित करने बेहतरीन कोशिश भी की है। इसमें तो कोई दो राय नहीं कि हमारी सरकार द्वारा बच्चों की प्राथमिक शिक्षा को सुनिश्चित करने के लिए तमाम प्रयास किए जाते रहे हैं, पर ये भी एक कड़वा सच है कि उन तमाम प्रयासों के बावजूद यूनिसेफ की इस वर्ष आई एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के 7.4 करोड़ बच्चों में से 2 करोड़ बच्चे अब भी स्कूली शिक्षा से वंचित हैं। अब सवाल ये उठता है कि आखिर वो क्या कारण है कि सरकार द्वारा तमाम प्रयास किए जाने के बाद भी भारत की प्राथमिक शिक्षा की ये दुर्दशा हो रही है? इस सवाल का जवाब सिर्फ यही है कि अब तक केंद्र व राज्य सरकारों की अधिकाधिक योजनाओं की ही तरह शिक्षा संबंधी योजनाएं भी बस कागज तक सिमटकर रहती आई हैं, क्योंकि, सरकार योजनाएं बनाकर अपने कर्तव्य की इतिर्शी समझ लेती है और उसे इससे कोई मतलब नहीं रह जाता कि उन योजनाओं का क्रियान्वयन कैसे हो रहा है? इसलिए सरकार की बेहतरीन योजनाएं भी सम्बंधित अधिकारियों व मंत्रियों के बीच धन उगाही का एक माध्यम मात्र बनकर रह जाती हैं और जनता तक उनका लाभ नहीं पहुंच पाता । यहां भी यही स्थिति है। नजीर के तौर पर देखें तो विगत संप्रग सरकार द्वारा अधिकाधिक बच्चों को स्कूलों से जोड़ने के लिए वर्ष 2009 में "शिक्षा का अधिकार" नामक कानून लागू किया गया, जिसके तहत 6 से 14 साल तक के प्रत्येक बच्चे के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गई है । साथ ही, निजी स्कूलों को भी अपने यहां 6 से 14 साल तक के कमजोर और गरीब तबकों के 25 प्रतिशत बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना अनिवार्य कर दिया गया। पर आज इस कानून के लागू होने के लगभग सात साल बाद अगर हम इसके क्रियान्वयन पर एक नजर डालें तो देखते हैं कि इसके नियमों का कोई समुचित क्रियान्वयन होता कहीं नहीं दिखता है। पिछले सालों में इस कानून के उचित क्रियान्वयन न होने के संबंध में एक संगठन द्वारा दायर याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केन्द्र व सभी राज्य सरकारों को नोटिस भेजकर जवाब मांगा गया था। दायर याचिका में कहा गया था कि देश भर में तकरीबन साढ़े तीन लाख विद्यालयों और 12 लाख शिक्षकों की कमी है जिस कारण "शिक्षा के अधिकार" कानून का समुचित क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। आलम ये है कि आज देश के अधिकांश सरकारी शिक्षण संस्थान ढांचागत व बुनियादी सुविधाओं से लेकर शैक्षिक गुणवत्ता के स्तर पर तक हर तरह से विफल नजर आते हैं। परिणामत: अभिभावक बच्चों को निजी शिक्षण संस्थानों में भेज रहे हैं और इस कारण उन्हें कहीं न कहीं निजी शिक्षण संस्थानों की मनमानी का शिकार भी होना पड़ रहा है। अगर सरकारी शिक्षण संस्थानों की बुनियादी सुविधाओं व शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार आए तो संदेह नहीं कि अभिभावकों की पहली पसंद अब भी वही होंगे। इसी सन्दर्भ में अगर एक नजर प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर डालें तो हम देखते हैं कि यहां भी सब कुछ सही नहीं है। इसी संदर्भ में उल्लेखनीय है कि एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश की कक्षा पांच के आधे से अधिक बच्चे कक्षा दो की किताब ठीक से पढ़ने में असर्मथ हैं। ये रिपोर्ट हमारी प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता के सरकारी दावों के खोखलेपन को सामने लाने के लिए पर्याप्त है। इसलिए शिक्षा में बड़े सुधार की जरूरत है। 
प्राथमिक शिक्षा की बदहाली: 
विचार करें तो प्राथमिक या उच्च किसी भी शिक्षा में गुणवत्ता के लिए मुख्य रूप से दो बातें सर्वाधिक आवश्यक होती हैं झ्र र्शेष्ठ व पर्याप्त शिक्षक और उत्तम पाठ्यक्रम । अब शिक्षकों की कमी की बात तो हम ऊपर देख ही चुके हैं और रही बात उत्तम पाठ्यक्रम की तो इस मामले में भी काफी समस्याएं दिखती हैं ।हालत ए है कि एक एलकेजी कक्षा का बच्चा जब स्कूल निकलता है तो पीठ पर लदे बस्ते के बोझ के मारे उससे चला नही जाता । कहने का मतलब ए है कि आज बच्चों पर उनकी शारीरिक और मानसिक क्षमता से कहीं अधिक का शैक्षिक बोझ डाला जा रहा है । ए समस्या अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चो के साथ कुछ ज्यादा ही है । अंग्रेजी माध्यम से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चों के लिए जो पाठ्यक्रम दिखता है, उसे किसी लिहाज से उन बच्चों की बौद्धिक क्षमता के योग्य नही कहा जा सकता । कारण कि उसमे केजी कक्षा के बच्चों के लिए तैयार पाठ्यक्रम दूसरी-तीसरी कक्षा के बच्चों के पाठ्यक्रम जैसा है । उदाहरण के तौर पर देखें तो जिन बच्चों की बौद्धिक अवस्था गिनती-पहाड़ा आदि सीखने की है, उनके लिए जोड़-घटाव सीखाने वाला पाठ्यक्रम तैयार किया गया है। अब ऐसे जरूरत से ज्यादा कठिन पाठ्यक्रम के फलस्वरूप गली-गली ट्यूशन की संस्कृति का सूत्रपात हुआ है, जिसकी शिक्षा पद्धति अधिकांशत: तोता रटंत जैसी ही है ।कहना गलत नही होगा कि ए पाठ्यक्रम भारत की प्राथमिक शिक्षा के लिए नुकसानदेह होने के साथ-साथ बच्चों के कोमल मस्तिष्क और मन के लिए घातक भी है । ऐसे पाठ्यक्रम से ए उम्मीद बेमानी है कि बच्चे कुछ नया जानेंगे, बल्कि सही मायने में तो ऐसे पाठ्यक्रम के बोझ तले दबकर बच्चे पढ़ी चीजें भी भूल जाएंगे । ऐसा पाठ्यक्रम बच्चों की बौद्धिक क्षमता के अनुसार किसी लिहाज से उपयुक्त नही है ! पर बावजूद इसके अगर इस तरह का पाठ्यक्रम स्कूलों द्वारा स्वीकृत है तो इसका सिर्फ एक ही कारण दिखता है - मोटा मुनाफा कमाना । चूंकि, बच्चों के इस भारी-भरकम पाठ्यक्रम की ढेर सारी किताबें अभिभावकों को स्कूल से ही लेनी होती हैं, अत: इस संभावना से इंकार नही किया जा सकता कि इसके पीछे निजी शिक्षण संस्थानों और प्रकाशकों आदि के मेलजोल से शिक्षा के नाम पर मुनाफाखोरी का बड़ा गोरखधंधा चल रहा होगा । उचित होता कि सरकार इस संबंध में स्वत: संज्ञान लेती तथा इस तरह के पाठ्यक्रमों को निरस्त करते हुए सम्बंधित लोगों पर उचित कार्रवाई करती । साथ ही, इस समस्या का स्थाई और आदर्श समाधान यह होगा कि नई शिक्षा नीति के तहत सभी बच्चों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसा पाठ्यक्रम तैयार किया जाय, जो उनकी बौद्धिक क्षमता के अनुरूप होने के साथ-साथ मानसिक विकास के लिए उपयुक्त भी हो। अगर ए किया जाता है, तो ही हम सही मायने में अपने देश के नौनिहालों का भविष्य सुरक्षित करने की तरफ अग्रसर होंगे और भारत को एक सुन्दर बौद्धिक भविष्य दे पाएंगे ।सरकार को इन बातों पर गंभीरतापूर्वक ध्यान देना चाहिए, क्योंकि ए बातें भारत की प्राथमिक शिक्षा से जुड़ी हैं और अगर यहीं खामी रही तो आप लाख विश्वविद्यालय स्थापित कर लें, उनका कोई विशेष अर्थ नही होगा !
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साभार: हरिभूमि समाचार 
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