Monday, June 26, 2017

अध्यापक अवश्य पढ़ें और शेयर करें: जो स्वतंत्र निर्णय लेना सिखाए वही असली शिक्षा

अरुण कुमार (प्रोग्राम को-ऑर्डिनेटर, विद्या भवन सोसायटी)
हमारे समाजमें स्कूल क्यों हैं? इनका काम क्या है? क्या स्कूलों का उद्देश्य बच्चों को इसलिए तैयार करना है कि वे सफेदपोश नौकरी हासिल कर सकें? या हर व्यक्ति में ऐसी क्षमता विकसित करनी है कि वह स्वतंत्र निर्णय ले
सके, उस निर्णय पर कारणों सहित उसका मतलब समझा सके, आंकड़ों को समझ सके उनका विश्लेषण कर सके, दूसरों के विचारों को महत्व दे सके, उनके तर्कों को समझ सके, उस पर अपने तर्क रख सके। आज के समय में शिक्षा और उसके उद्देश्यों को लेकर इन सवालों पर सोचे बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। विद्या भवन ने उदयपुर जैसे छोटे शहर से शिक्षा के क्षेत्र में काम करने की यात्रा शुरू की थी। कई उतार-चढ़ाव से भरी यह यात्रा आज भी देश के विभिन्न हिस्से के स्कूलों और समुदाय के साथ जारी है। प्रत्येक स्कूल और समुदाय में बच्चों को शिक्षित करना, उनके तर्कों को सम्मान देना, उनके साथ बराबरी का व्यवहार करना तथा उनके अधिकारों को समझने का सवाल महत्वपूर्ण बना हुआ है। यह स्कूल के सभी अनुभवों और कार्यक्रमों में दिखाई पड़ता है। विद्या भवन स्कूल में हर साल सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए ग्रीष्म कालीन कैम्प का आयोजन किया जाता है। हर साल नए बच्चे महीनेभर इस कैम्प में भागीदारी करते हैं। ये बच्चे हमारी शिक्षा व्यवस्था, स्कूल, अध्यापक और समुदाय के बारे में सोचने के लिए ढेरों सवाल छोड़ जाते हैं। इस साल भी कैम्प के कुछ ऐसे ही अनुभव सामने आए। 
गीत, संगीत, नृत्य और नाटक के आनंद की शोर मचाती आवाजें क्रमशः सुबकने लगीं। हर तरफ से रोने की आवाजें सुनाई देने लगीं। जिधर नज़र जा रही थी शिक्षक, वालंटियर, लड़के, लड़कियां हर किसी की आंखें आंसुओं से तर थीं। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। पिछले कई वर्षों से विद्या भवन स्कूल में चलने वाले ग्रीष्मकालीन कैम्प का समापन समारोह ऐसा ही होता रहा है। हर साल यह कैम्प अपनी सहजता और नए-एन बच्चों की मौलिकता लिए पूरा हो जाता है। अलग-अलग हिस्सों से आए गरीबों के बच्चे तरह तरह के सवाल उठाते अपने गांव के सरकारी स्कूलों की ओर बढ़ जाते हैं। हम यह उम्मीद रखतें हैं कि ये बच्चे अपनी पढ़ाई जारी रखेंगें और अपने शिक्षकों से सवाल पूछते रहेंगे.... 
इस बार के कैम्प के दौरान भी बच्चों के बहुत से सवाल आए एक सवाल था कि किसी ने बच्चों से कह दिया कि 'नाचने गाने से क्या होता हैं' उन्हें तो पढ़ाई-लिखाई पर ही ध्यान देना चाहिए। एक अर्जी दो बच्चियों की थी, जिनके घर में शादी थी। उन्होंने अपने परिवार वालों से कह दिया कि वे कैम्प छोड़कर नहीं जाएंगी लेकिन, घर वाले उन्हें जबर्दस्ती लेने रहे थे। बच्चियों ने हमसे पूछा था कि घर जाने से रोकने के लिए हम उनके लिए क्या कर सकतें हैं? 
इसी कैम्प में काम कर रहे एक वालंटियर शिक्षक आखिरी पूरी रात बच्चों अपने साथी शिक्षकों के साथ फतहसागर झील के किनारे घूमते रहे और अगले दिन जाते समय बहुत उदास थे। उनकी उदासी का कारण एक बच्चा था, जो पूरे महीने उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद आखिरी एक हफ्ते में कुछ-कुछ बोलना शुरू कर पाया था। उस बच्चे को याद करते हुए वे कहने लगे 15 दिन कैम्प के बीत गए और यह बच्चा कुछ भी बोल नहीं रहा था। मेरी समझ में नहीं रहा था कि क्या करूं? एक दिन कक्षा में उन्होंने उस बच्चे के कंधे पर हाथ रख दिया ऐसा करते ही वह चौंककर डर गया। बहुत पूछने पर उसने बताया कि उसे लगा था अब आप मुझे मारेंगे.... आखिरी सप्ताह तक वह बच्चा कुछ-कुछ बोलने लगा था लेकिन, कैम्प से वापस जाते हुए हमारे शिक्षक साथी को यही लग रहा था कि उस बच्चे के साथ उनका काम अभी पूरा नहीं हुआ है... 
विद्या भवन सोसायटी के जरिये शिक्षा में काम करते हुए आठ दशक से ऊपर हो गए हैं पर आज भी हमारे लिए यह सवाल कायम है कि 'हमारा काम अभी पूरा नहीं हुआ।' विद्या भवन स्कूल में ऐसे भी बच्चे आते जिन्हें अपने स्कूलों ने यह मानकर छोड़ दिया कि वे सीख ही नहीं सकते। अलग-अलग विषय को लेकर भी ऐसे बच्चों के बारे उनके स्कूलों और समुदाय के फीड बैक थे। कोई गणित नहीं सीख सकता था तो कोई अंग्रेजी तो कोई पढ़ना नहीं सीख सकता था। इनका परिवेश, इनकी बुद्धि इस लायक नहीं है कि वे पढ़ाई कर पाए और उतीर्ण होकर अगली कक्षा में जा पाएं। ऐसे आदिवासी गरीबों के परिवारसे पिछले साल आठवीं में तीस बच्चों का नामांकन हुआ था। विद्या भवन में पढ़ते और रहते हुए इन सभी बच्चों ने सिर्फ पढ़ना बल्कि गणित अंग्रेजी भी सीखे और आठवीं कक्षा भी उत्तीर्ण की। विद्या भवन के लोगों ने थोड़ा लगाव, बराबरी और बच्चों में सीखने की समझ के साथ काम किया, जिसका परिणाम था कि ये बच्चे स्कूल में बने हुए हैं। छात्रावास में रहते हुए ये बच्चे विभिन्न प्रकार के आयोजनों और कार्यक्रमों में खुलकर भागीदारी कर रहे हैं और अपने सवाल पूछ रहें हैं। 
समाज में शिक्षा की सफलता का पैमाना अस्सी प्रतिशत, नब्बे प्रतिशत और सौ प्रतिशत से आगे बढ़ता हुआ नौकरशाह, डॉक्टर, इंजीनियर, और वकील के रूप स्थापित करने का बन गया है। वास्तविक पैमानों पर सोचने वाले लोग कौन होंगे। जो बच्चे बड़े होकर जूते सिलेंगे, कपड़े सिलेंगे, चपरासी बनेंगे, पौधे उगाएंगे, किसानी करेंगे, ड्राइवर होंगे, क्लर्क, मैनेजर, अधिकारी होंगे या शिक्षक होंगे क्या इन्हें योग्य और कुशल बनाए जाने की जिम्मेदारी समाज और सरकार को लेने की आवश्यकता नहीं है। औपचारिक स्कूली व्यवस्था किसी भी समाज के लिए एक अनिवार्य मजबूरी की तरह है। यह हो तो बेहतर है पर इसका कोई विकल्प नहीं हैं। मनुष्य का मस्तिष्क वास्तविक दुनिया के संदर्भों से सीखने के अनुकूल होता है लेकिन, स्कूल अमूर्त से या पाठ्यपुस्तकों के जरिये सिखाने की प्रक्रिया से शुरू होते हैं। बच्चों स्कूल को लेकर, उनके सीखने को लेकर हमारे समाज की शैक्षिक चेतना बेहद चिंतनीय हैं। समाज में कई प्रकार की मान्यताएं और विश्वास लोगों के दिल दिमाग में बैठे हुए हैं, जो बचपन और सीखने को लगातार नुकसान पहुचाने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकते। सफलता के जिन पैमानों पर जोर दिया जा रहा है उसे बदलने की आवश्यकता है। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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