Sunday, October 25, 2015

विचारणीय: कितना ‘सोशल’ है मीडिया

रवि पाराशर
मासूम सा बच्चा...उम्र तेरह साल, पर दिल-ओ-दिमाग में भारी हलचल। इतनी हलचल कि उसने जिंदगी खत्म करने का फैसला कर लिया और रात के अंधेरे में समाने के लिए घड़ी की सुइयां देखने लगा। अगले दिन उसका जन्मदिन था, पर 31 अगस्त की रात 12 बजे के बाद उसने मरने से पहले व्हाट्सअप पर अपनी तस्वीर के साथ संदेश लिखा-′मुझे ऐसी दुनिया में नहीं रहना, जहां इंसान से ज्यादा पैसे की कीमत है। रेस्ट इन पीस, स्वर्णिम सिंह।′ स्वर्णिम दिल्ली का बेटा था। उसके माता-पिता नौ साल से अलग रह रहे हैं। वह उन्हें मिलाना चाहता था, पर ऐसा नहीं हो पाया और वह इस तनाव में पंखे पर झूल गया। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। इस खबर के दो दिन बाद छब्बीस साल की फैशन डिजाइनर ईशा हांडा ने खुदकुशी करने से पहले 48 घंटे तक गूगल सर्च में खर्च किए। दिल्ली से दूर बंगलूरू में उसने करीब 90 वेबसाइटें ये जानने के लिए खंगालीं कि मरने का सबसे फूलप्रूफ तरीका क्या है। तरीका मिलने के बाद ईशा ने ऊंची इमारत से कूदकर जान दे दी। अभी खबर कोयंबटूर से आई कि फेसबुक और व्हाट्सअप से चिपके रहने की आदत पर एक पति ने पत्नी को डांटा, तो उसने खुदकुशी कर ली। उसकी उम्र बीस साल थी। इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक 30 जून, 2015 तक देश में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या 35.2 करोड़ थी। चालू साल के पहले छह महीनों में 5.2 करोड़ लोग इंटरनेट से जुड़े। जून तक देश में वारयरलेस फोन की संख्या 98.8 करोड़ थी। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। मोबाइल पर इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या 9.31 करोड़ थी। यानी सोशल मीडिया तक लोगों की पहुंच बढ़ती जा रही है। आत्महत्याओं के इन मामलों के बाद सवाल उठता है कि क्या ‘सोशल मीडिया’ को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत नहीं है? ऐसा भी नहीं कि सोशल मीडिया समाज का भला नहीं कर रहा हो। पर जो मीडिया समाज में नकारात्मक विचार भी फैला रहा हो, उसे सामाजिक मीडिया कहा जा सकता है क्या? केंद्र सरकार और सभी राजनीतिक दलों के अलावा उद्योग जगत, सभी सोशल मीडिया का महत्व समझ गए हैं। सरकार बनते ही प्रधानमंत्री का फोकस सोशल मीडिया पर था। लिहाजा सभी सरकारी विभाग फेसबुक और ट्विटर पर आ गए हैं। सोशल मीडिया का विस्तार तो होता जा रहा है, पर इसे मैनेज करने वालों की बेहद कमी है। देश में 35 से कम उम्र के लोगों की संख्या 75 करोड़ से ज्यादा है। कहा जा सकता है कि कम से कम इतने लोग तो सीधे-सीधे सोशल मीडिया से जुड़े हैं। ऐसे में कुछ कदम उठाना चाहिए। जैसे, सोशल मीडिया को विषय के तौर पर स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाना चाहिए, जिसमें तकनीकी के साथ नैतिक पक्ष पर भी जोर हो। सामाजिक स्तर पर भी, जैसे शहरों की सोसाइटियों की आरडब्लूए, दूसरे सामाजिक, धार्मिक संगठन, स्कूल-कॉलेज, सरकारी-गैरसरकारी दफ्तर एनजीओ वगैरह, इस बारे में सोचा जाए। पर कुछ पंचायतों के उन तालिबानी फरमानों को सही नहीं ठहराया जा सकता, जिनमें लड़कियों के मोबाइल फोन रखने पर पाबंदी लगाने की बात की जाती है। यानी सरकारी नियम-कायदों के अलावा एक नागरिक संहिता की सख्त जरूरत है। अगर मीडिया को सोशल बनाना है, तो सरकार और समाज को गंभीरता से सोचना होगा। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभारअमर उजाला समाचार 
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