Wednesday, October 7, 2015

ग्रामीण भारत में डिजिटल शिक्षा से चमत्कार

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)

बीते रविवार की बात है। एक दस साल की लड़की लैपटॉप के समक्ष गर्व से बैठी थी। सीधे तनकर बैठी लड़की के चेहरे पर खुशी की चमक थी। उसने अपनी दसों अंगुलियां किसी अनुभवी लैपटॉप यूजर की तरह की-बोर्ड पर रख दीं और काम करने लगी। पहले उसने अपना नाम टाइप किया, लेकिन थोड़ी धीमी गति से। एक के बाद दूसरा अक्षर और आखिर में पढ़ा - मंजू कुमारी गामती। स्पेलिंग में गलती की कोई संभावना नहीं थी। इसके बाद उसने अपने पिता का नाम टाइप किया और फिर आखिरी में अंग्रेजी के सारे 26 अल्फाबेट। इस बार भी कोई गलती नहीं। जैसे बीते जमाने के बॉलीवुड एक्टर तुरंत दर्शकों को सपनों की दुनिया में ले जाते थे, वैसे ही मंजू भी सपनों में चली गई। उसका चेहरा गुलाबी हो गया, जैसे कोई ताजा खिला कमल हो और उस पर थी- झिझक, खुशी और गर्व। लेकिन आसपास मौजूद लोगों की तालियों की आवाज उसे फिर असल दुनिया में ले आई, इससे उसकी चमकदार आंखें नम हो गईं - खुशी के आंसू। आप सोच रहे होंगे एक दस साल की लड़की ने अपना नाम टाइप किया, इसमें नया क्या है? हां। यह चौकाने वाली बात है, क्योंकि वह आदिवासी लड़की है। गांव में रहती है, जिसका नाम है झोंक का भीलवाड़ा और दो साल पुराने, अधूरे बने स्कूल में पढ़ती है। यह गांव उदयपुर से 70 किलोमीटर दूर एक छोटी पहाड़ी पर स्थित है। यह स्थान राजस्थान के राजसमुंद जिले के खामनोर ब्लॉक के गांवखुदा पंचायत में आता है। 25 परिवारों और 80 लोगों की आबादी वाले इस गांव में कभी भी कोई स्कूल नहीं गया और दो साल पहले तक तो यहां कोई स्कूल था भी नहीं। मुख्य मार्ग से 25 किलोमीटर दूर स्थित इस गांव में सड़क नाम की कोई चीज नहीं है। मंजू के दादा ने 70 साल की उम्र तक बिजली नहीं देखी थी और मंजू खुद भी पिछले तीन साल से सप्ताह में एक दिन के लिए कुछ घंटे बिजली देख पा रही थी। आदिवासी समुदाय का यह आत्मनिर्भर गांव है, जिसका मुख्य व्यवसाय केले जैसे फलों की खेती, बकरी का दूध और गुड़ बनाना है। 
मंजू सहित गांव के स्कूल के सभी बच्चों का परिचय हल्दी घाटी से आए कुछ वॉलंटियर्स ने रविवार को टाइपिंग शुरू करने से दो घंटे पहले ही एक चीज से कराया गया था, जिसका नाम था कंप्यूटर। हल्दीघाटी इस पहाड़ी गांव से 40 किलोमीटर दूर एक दूसरा गांव है और वे लोग अपने लैपटॉप लेकर बच्चों को कप्यूटर सिखाने आए थे। सिर्फ मंजू ही नहीं थी जिसने पहली बार कंप्यूटर देखा था, बल्कि उस स्कूल के सभी 46 बच्चों ने जिंदगी में पहली बार कंप्यूटर देखा था। इन बच्चों में पास के टोले नंदूखुदी के दस छात्र भी शामिल थे। 
लेकिन इस प्रक्रिया की सबसे अच्छी बात यह थी कि बच्चों ने पूरे 90 मिनट तक वॉलंटियर्स द्वारा दी गई कंप्यूटर की शिक्षा को बहुत ध्यान से सुना और बाद के 90 मिनट में उन्होंने कंप्यूटर पर प्रैक्टिस की। इस दौरान कुछ ने गलतियां की, लेकिन अधिकांश ने एक भी गलती नहीं की। दैनिक भास्कर के संवाददाता वीरेंद्र पालीवाल और उनके भाई जीतेंद्र पालीवाल के साथ वॉलंटियर्स दो कोचिंग क्लास के मालिकों के साथ वहां पहुंचे थे। ये लोग यहां स्कूल के टीचर अजय राम के अनुरोध पर आए थे, जो खुद रोज 20 किलोमीटर यात्रा कर बच्चों को पढ़ाने आते हैं। हालांकि अजय को अपने घर के नजदीक काम मिल सकता था, लेकिन वे यह भी जानते थे कि कोई भी टीचर इस तरह की विकट स्थिति में पढ़ाने नहीं आएगा और उन्होंने स्कूल जा रही गांव के पहली पीढ़ी के हित को प्राथमिकता दी। 
आज के बच्चों को सिर्फ प्राथमिक शिक्षा की ही जरूरत नहीं है, बल्कि उन्हें जटिल होते जा रहे और आपस में जुड़ रहे विश्व से निपटने में सक्षम बनाने की जरूरत है। इसलिए समाज के सभी वर्गों के लिए समावेशी शिक्षा की दिशा में इन युवाओं के प्रयास को सराहना की जरूरत है। 
फंडायह है कि बच्चेकहीं के भी हों उनमें स्वाभाविक जिज्ञासा होती है और इस तरह की गतिविधियां परंपरागत स्कूलिंग को सहयोग करेंगी। और यह पहल नई पीढ़ी में नई संभावनाओं को खोलेगी। और देने का सुख हासिल करने का यह आधुनिक तरीका है।

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साभारभास्कर समाचार 
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