अतिथियों का आंदोलन सीधे तौर पर राजनीतिक नाकामी का नतीजा है। बीते करीब एक
दशक के दौरान स्थायी तौर पर अध्यापकों के रिक्त पदों को भरने में नाकाम
रही सरकार समय-समय पर अतिथि अध्यापकों को रख कर अपना उल्लू तो सीधा करती
रही लेकिन आज तक भी समस्या का स्थायी निदान नहीं निकाल सकी। नतीजा आज
विद्याथियों को भुगतना पड़ रहा है। वर्ष 2005 में जब प्रदेश की नई-नई
कांग्रेस सरकार
अध्यापकों के रिक्त पदों को भर पाने में नाकाम रही तो उसने
तीन तीन माह अतिथियों से काम चलाने की सोची। तीन महीने बाद फिर इनका
कार्यकाल बढ़ा दिया गया। यह क्रम फिर सालों साल चलता रहा और 2008 तक यह
अतिथि भी कई बार रखे गए। आलम यह है कि आज अतिथियों की संख्या हजारों में
पहुंच गई है और अनगिनत स्कूलों का दारोमदार भी इन्हीं के कंधों पर टिका है।
शिक्षा विभाग के सूत्रों की मानें तो प्रदेशभर में सैकड़ों
सरकारी स्कूल ऐसे हैं जहां नियमित अध्यापकों की तुलना में अतिथियों की
संख्या कहीं ज्यादा है। यानि इनके नहीं होने का सीधा सा मतलब स्कूलों का
बंटाधार है। वजह, न तो रातोंरात नए अध्यापक आ सकते हैं और न स्थिति काबू
में आ
सकती है।
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साभार: जागरण समाचार
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