मैनेजमेंट फंडा (एन. रघुरामन)
सोमवार को सुबह जब मैंने कार का रेडियो चालू किया तो एफएम पर कहानी रही थी। दादाजी अपने पोते से कहते हैं- बेटा मेरे पैर दबा दे, बहुत दर्द हो रहा है। वे उसे प्रलोभन देते हैं कि अगर पैर दबाएगा तो एक पैंसिल
बॉक्स ला देंगे। बच्चा एक साधारण से पैंसिल बॉक्स के लिए दादाजी के पैर दबाने से इनकार कर देता है। फिर दादाजी कहते हैं, क्रेयॉन, जियोमेट्री बॉक्स दिला दूंगा। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। जब इनसे भी बात नहीं बनती तो स्कूल बैग जैसी असेसरी दिलाने की बात करते हैं। बच्चा कहता है कि ये सभी चीजें जो पापा ने उसे ला दी हैं। दादाजी इस बात से चकित रह जाते हैं कि उनके बेटे ने कैसे ये सब चीजें ला दीं, जबकि उसकी आर्थिक स्थिति तो बहुत अच्छी नहीं है। फिर अचानक विज्ञापनदाता की आवाज आती है कि अपने बच्चे की स्कूल की जरूरतें पूरी करने के लिए आप कर्ज ले सकते हैं! मैं इस बात से चकित नहीं था कि पिता अपने बच्चों की जरूरतों को पूरा करने के लिए किस स्तर तक जा सकते हैं, बल्कि इस बात से हैरान था कि इसे एक उपलब्धि की तरह दिखाया जा रहा था। विज्ञापन अन्य पैरेंट्स को भी बता रहा था कि वे अब तक अर्जित चीजों को गिरवी रखकर इसी तरह की सुविधाएं अपने बच्चों के लिए भी हासिल कर सकते हैं। इसने मुझे अपने स्कूल के दिनों की याद दिला दी। मेरी यूनिफॉर्म का पिछले साल का पैंट मुझे छोटा पड़ने लगा था। इस बात का अहसास हमें स्कूल खुलने के सिर्फ तीन दिन पहले हुआ था। मैंने टाइट हाफ पेंट पहनकर स्कूल जाने से साथ मना कर दिया था। मैं 8वीं क्लास में गया था और क्लास की लड़कियां अब सातवीं की अपेक्षा पहले से ज्यादा खूबसूरत नज़र आने लगी थीं।
मेरे पिता के चेहरे पर चिंता थी। कैसे स्कूल यूनिफार्म लेकर आए? दुर्भाग्य से तब हमारे विवेकशील पैरेंट्स के पास स्वाइप करने के लिए क्रेडिट-कार्ड नहीं होते थे। मेरी मां ने शानदार आइडिया दिया। अपनी एक सहेली से उन्होंने सीखा था कि कैसे रेलवे की सफेद यूनिफॉर्म पेंट को नीले रंग से डाई किया जाता है। इसके 24 घंटे बाद मेरे पिता की यूनिफॉर्म का सफेद पेंट नीले रंग में रंग दिया गया था। हम नागपुर के सीताबर्डी में रहते थे और मेरी मां कपड़ों को अल्टर करने वाले वहां के सबसे सस्ते टेलर से पहले ही बात कर चुकी थीं। 36 घंटों में उस फुलपैंट के दो हाफपैंट बना दिए गए। मेरे स्कूल जाने के पहले उसे धोने के लिए 12 घंटों का पर्याप्त समय था। अगले दिन सुबह स्कूल का पहला दिन था। जब मैं उस दिन उठा तो देखा कि मां दक्षिण भारतीय कॉफी के डिब्बे में गर्म कोयले से भरकर स्कूल यूनिफार्म को प्रेस कर रही हैं। वे अपने शरीर का पूरा भार उस पर डाल रहीं थी, ताकि मेरे यूनिफार्म पर एक भी सलवट बचे और मैं स्कूल में जाकर अपने कक्षा के साथियों को प्रभावित कर सकूं। अब मुझे यह बताने की जरूरत नहीं है कि ये कौन से क्लासमैट्स, क्योंकि उनके बारे में अब तक तो आप जान ही गए हैं। यकीन कीजिए हाफपैंट ऐसी लग रही थी, जैसे एकदम नई गारमेंट शोरूम से लाई गई हो।
पैंट, शर्ट या स्कूल की ही बात नहीं थी, मेरे पैरेंट्स ने कभी कोई गैर-जरूरी चीज नहीं दिलाई। ही मैंने कभी स्कूल की कोई भी चीज सेकंड हैंड इस्तेमाल की। ही नागपुर में कोई यह जान पाया कि हम आर्थिक संकट से गुजर रहे थे। परिवार का सम्मान इतना बड़ा होता था कि कभी किसी की गैर-जरूरी इच्छाओं को पूरा करने के लिए कोई चीज गिरवी नहीं रखी जाती थी। दशकों के बाद परिवार के मिशन बदल गए हैं और उधार लेना अब जरूरी-सा माना जाने लगा है। यह विज्ञापन इसी विचार प्रक्रिया का हिस्सा है। हां, लेकिन परिवार का सम्मान अब भी उसी उच्च स्तर पर है, लेकिन अब मायने बदल गए हैं।
फंडा यह है कि हर पीढ़ी के लिए परिवार का सम्मान सर्वोच्च होता है, हो सकता है कि समय के साथ इसे बनाए रखने के तरीके बदल गए हों।
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साभार: भास्कर समाचार
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