Thursday, June 15, 2017

जानकारी क़ानून की: किसी के खिलाफ अदालत जा रहे हैं, तो ये जरूर जान लें

कुणाल मदान (सॉलिसिटर,दिल्ली हाईकोर्ट, केएमए लॉ फर्म)
आपके साथ कोई घटना हुई हो, तो स्वाभाविक है आप अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे। मामला दीवानी है या आपराधिक यह तय करना आसान है, लेकिन फिर भी अदालत में जाने से पहले कुछ बातों की जानकारी आपको
होना जरूरी है। इसे जानने के बाद अदालत में मामला दायर करना आसान होगा। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। क्या आपकिसी पर अदालत में मुकदमा करना चाहते हैं। आपके साथ कोई घटना हुई हो या ठगी या किसी ने विश्वासघात किया हो, मामला कोई भी हो, यदि आप किसी के खिलाफ अदालत में मुकदमा करना चाहते हैं तो आपको इन बातों का ध्यान रखना बहुत जरूरी है:
मुकदमा करने का कानूनी अधिकार: क्या आपको किसी के खिलाफ मुकदमा करने का कानूनी अधिकार है। बेहतर है इसे समझ लें। क्या किसी के खिलाफ मुकदमा करने का कोई कारण है। 
जिसके खिलाफ मुकदमा कर रहे हैं: कईबार गलत कारणों से हम एक सही व्यक्ति के खिलाफ मुकदमा कर देते हैं। जबकि अदालत में ऐसे पक्ष के खिलाफ ही जाना चाहिए, जिसके खिलाफ आपकी आपत्ति हो। 
सही फोरम और कोर्ट: किसी के खिलाफ उपभोक्ता अदालत में जाए, जब तक आप स्वयं उपभोक्ता की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आते हो। किसी के खिलाफ अदालत में मुकदमा नहीं करना चाहिए, जब तक कि कानून आपको इसके लिए रोक रहा हो। यदि आपको सामान्य मामला पेश करना है तो समरी सूट दायर करने की जरूरत नहीं है। क्षेत्राधिकार का चयन करना भी एक अहम कदम होता है। इसके लिए अनुबंध और कार्यवाही के कारण का अध्ययन करना जरूरी है। इसके बाद ही क्षेत्राधिकार तय किया जा सकता है। 
क्षेत्राधिकार दो प्रकार के होते हैं: एक क्षेत्रीय और दूसरा धन संबंधी होता है। क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार का अर्थ होता है कि कोर्ट राज्यवार या जिलावार मामला तय करती है। कुछ विशेष मामले दिल्ली या मुंबई जाते हैं। क्षेत्राधिकार का दूसरा पक्ष धन संबंधी है। इसमें दावे आदि के मामले तय किए जाते हैं। यदि मामला 2 करोड़ रु. से कम के हैं तो दिल्ली में इस तरह के मामले जिला अदालतों में जाते हैं। यदि मामला इससे अधिक की राशि का है तो फिर यह हाईकोर्ट में जाएगा। यहां दिल्ली और दूसरे राज्यों का जिक्र इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि धन संबंधी क्षेत्राधिकार राज्यवार अलग-अलग होते हैं। 
अनुपालन की अनिवार्यता: इसका अर्थ यह है कि विधायी नोटिस को सही पते पर ही भेजा जाना चाहिए। जहां तक कामकाज समेटने या बंद करने के नोटिस होते हैं वे कंपनी या फर्म या संस्था के पंजीकृत कार्यालय को ही भेजे जाने चाहिए। 
जहां तक चेक के अनादरित होने के मामले हैं, वे 138एनआई कानून के तहत आते हैं। इस तरह के मामलों में नोटिस 30 दिन के अंदर भेज दिया जाना चाहिए। दूसरी ओर यदि आप किसी सरकारी संगठन के खिलाफ मुकदमा ठोकना चाहते हैं तो आपको दो माह पहले ही नागरिक प्रक्रिया संहिता की धारा 80 के अंतर्गत एडवांस नोटिस देना होता है। हालांकि इसके बिना भी आप केस फाइल कर सकते हैं लेकिन इसके लिए अदालत अपना समय लेती है। 
अस्पष्टता न हो: मामला दायर करते समय कार्यवाही, तिथि, समय और घटना के स्थान का जिक्र स्पष्ट हो। ऐसा नहीं कह सकते कि आपको स्पष्ट याद नहीं। जो कुछ हुआ है, उसका भी ब्योरा स्पष्ट देना होगा। किसने क्या कहा है, उसका संदर्भ क्या था, यह सब ब्योरा मामला दायर करते वक्त जरूरी होता है। 
दस्तावेज: कभी दस्तावेज दोधारी तलवार की तरह होते हैं। इसलिए प्रत्येक दस्तावेज को बार-बार पढ़ लेना चाहिए। ऐसा हो कि एक भी दस्तावेज आपके खिलाफ अर्थ निकाल रहा हो। ई-मेल, पत्र, अनुबंध और प्रत्येक दस्तावेज का सटीक अध्ययन जरूरी है। जो दस्तावेज आपके पक्ष में नहीं जाता हो, उसे नहीं लेना चाहिए। 
सीमाएं: मामला दायर करते वक्त सीमा का ध्यान रखना होता है। दीवानी मामलों में सीमा तीन वर्ष की होती है, जबकि संपत्ति आदि के मामलों में यह सीमा बारह वर्ष की होती है। इसी प्रकार अपील के लिए सीमा 30 से 90 दिनों की रहती है। इसमें कई तरह की धाराएं और अनुसूची होती है। यह पूरे देश में लागू है, सिवाय जम्मू- कश्मीर के। प्रत्येक दीवानी मामले के लिए आपको अदालत में शुल्क लगता है, जो कभी बेहद कम, कभी बहुत अधिक होता है। प्रत्येक राज्य में अदालती फीस की दरें अलग हैं। जितना अधिक दावा होगा, उतना ी ऊंचा अदालती शुल्क होगा। 
फैक्ट सीपीसी(नागरिक प्रक्रिया संहिता में तीन अहम संशोधन 1976, 1999 और 2002 में किए गए ताकि बदलते समाज तकनीकी विकास के अनुरूप कानूनों को अधिक धारदार बनाया जा सके। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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