Thursday, October 15, 2015

ज्वाला देवी: दिव्य ज्वाला, जो कभी भी, कैसे भी बुझ नहीं सकती: अकबर को भी झुका दिया था

हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा से 30 किलोमीटर दूर है ज्वालादेवी का मंदिर। इस देवी स्थान के बारे में कहा जाता है कि यहां के चमत्कार देख मुगल बादशाह हैरान रह गया था। मंदिर में होने वाले चमत्कारों को सुन अकबर सेना समेत यहां आया था। यहां जल रही ज्योति को उसने बुझाने के लिए सेना से पानी डलवाना शुरू कर दिया। पानी डलने के बाद भी ज्योति जलती रहीं। यह देख अकबर ने मां ज्वालादेवी से माफी मांगी और पूजा कर छत्र चढ़ाया था। लेकिन, ज्वालादेवी ने उसका छत्र स्वीकार नहीं किया। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि यहां की कथा अकबर और माता के भक्त ध्यानू भगत से जुडी है। उन दिनों हिंदुस्तान में मुगल सम्राट अकबर का शासन था।
हिमाचल के नादौन गांव का निवासी धयानू भक्त हजारों यात्रियों सहित माता के दर्शन के लिए जा रहा था। इतना बड़ा दल देखकर बादशाह के सिपाहियों ने चांदनी चौक दिल्ली मे उन्हें रोक लिया। सिपाही दल को अकबर के दरबार में ले गए।
अकबर ने पूछा ये ज्वालामाई कौन हैं: बादशाह अकबर ने ध्यानू से पूछा तुम इतने लोगों को लेकर कहां जा रहे हो। ध्यानू ने कहा ज्वालामाई के दर्शन के लिए जा रहा हूं मेरे साथ जो लोग हैं, वह भी उनके दर्शन के लिए जा रहे हैं। ध्यानू की बात सुन अकबर ने कहा यह ज्वालामाई कौन है, वहां जाने से क्या होगा?  ध्यानू ने उत्तर दिया महाराज ज्वालामाई संसार का पालन करने वाली माता है। वे भक्तों की प्राथनाएं स्वीकार करती हैं। उनके स्थान पर बिना तेल-बत्ती के ज्योति जलती रहती है। हम लोग प्रतिवर्ष उनके दर्शन जाते हैं।
अकबर ने ली थी मां की परीक्षा: अकबर ने ध्यानू की बात सुन कहा कि अगर तुम्हें अपनी इस माता पर इतना भरोसा है तो वह तुम्हारी बात जरूर मानेगी। अगर वह तुम जैसे भक्तों का ख्याल न रखे तो फिर तुम्हारी इस श्रद्धा और भक्ति का क्या मतलब। अकबर ने कहा मैं तुम्हारा और तुम्हारी ज्वालामाई की परीक्षा लूंगा। अकबर ने परीक्षा के लिए ध्यानू के घोड़े की गर्दन कटवा दी और ध्यानू से कहा कि अब तुम अपनी मां से कहो की घोड़े की गर्दन जोड़ दें।
ध्यानू ने कहा एक महीने तक घोड़े को रखे संभालकर: सीधे-साधे ध्यानू ने अकबर से कहा कि एक महीने तक घोड़े के सिर व धड़ को सुरक्षित रखा जाए। अकबर ने ध्यानू भक्त की बात मान ली और उसे यात्रा करने की अनुमति भी मिल गई। बादशाह के दरबार से ध्यानू अपने साथियों सहित माता के दरबार मे जा पहुंचा। उसने वहां रात भर जागरण किया। सुबह आरती के समय हाथ जोड़ कर ध्यानू ने प्रार्थना की। उसने कहा बादशाह मेरी भक्ति की परीक्षा ले रहा है। मेरी लाज रखना, मेरे घोड़े को अपनी कृपा व शक्ति से जीवित कर देना। कहते है की अपने भक्त की लाज रखते हुए मां ने घोड़े को फिर से ज़िंदा कर दिया।
सेना को ज्योति बुझाने का दिया आदेश: ध्यानू वहां माता से प्रार्थना कर रहा था इधर उसके घोड़े का सिर धड़ से जुड़ गया। यह सब कुछ देखकर बादशाह अकबर हैरान हो गया | उसने अपनी सेना बुलाई और खुद मंदिर की तरफ चल पड़ा | वहां पहुंच कर उसने अपनी सेना से मंदिर में पानी डलवाया, लेकिन माता की ज्योति नहीं बुझी।  यह सब देख उसे मां की महिमा का यकीन हुआ और घुटने के बल मां के सामने बैठ कर क्षमा मांगने लगा। उसने मां की पूजा कर सवा मन (पचास किलो) सोने का छत्र चढ़ाया | लेकिन माता ने वह छत्र कबूल नहीं किया और वह छत्र गिर गया।
अकबर का घमंड हुआ चूर-चूर: अकबर की भेंट माता के अस्वीकार कर दी थी। इसके बाद कई दिन तक मंदिर में रहकर उनसे क्षमा मांगता रहा। बड़े दुखी मन से वह वापस आया। कहते हैं कि इस घटना के बाद से ही अकबर के जीवन में अहम बदलाव आए। और उसके मन में हिंदू देवी-देवताओं के लिए श्रद्धा पैदा हुई।
अंग्रेज भी नहीं लगा पाए थे पता: यहां पर ज्वाला प्राकृतिक न होकर चमत्कारिक है। अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजों ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा दिया कि जमीन से निकलती 'ऊर्जा' का इस्तेमाल किया जाए। लेकिन लाख कोशिश करने पर भी वे इस 'ऊर्जा' को नहीं ढूंढ पाए। वहीं अकबर लाख कोशिशों के बाद भी इसे बुझा न पाया। यह दोनों बाते यह सिद्ध करती है की यहां ज्वाला चमत्कारी रूप से ही निकलती है ना कि प्राकृतिक रूप से, नहीं तो आज यहां मंदिर की जगह मशीनें लगी होतीं और बिजली का उत्पादन होता।
कहते हैं यहां गिरी थी माता की जीभ: ज्वाला माता की उत्पत्ति की कथा है कि एक बार सती के पिता दक्ष प्रजापति ने यज्ञ का आयोजन किया जिसमें उन्होंने अपने दामाद भगवान शंकर को नहीं बुलाया। इसके बाद बी देवी सती यज्ञ में शामिल होने पहुंच गई। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्री सती एवं दामाद भोलेनाथ का अपमान किया। इस व्यवहार से कुपित होकर देवी सती ने यज्ञ कुण्ड में कूद कर प्राण त्याग दिए। भगवान शंकर क्रोधित हो गए उन्होंने अपने जटाओं से वीरभद्र को प्रकट किया और दक्ष प्रजापति के यज्ञ को नष्ट करने की आज्ञा दे दी। भगवान शंकर सती का शव अपने कंधे पर लेकर त्रिलोक में भटक रहे थे तब शिव का मोह भंग करने के लिए देवताओं की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने अपने चक्र से देवी सती के अंग को 52 खंडों में विभक्त कर दिया। देवी सती के अंग जहां भी गिरे वह स्थान शक्ति पीठ कहलाया। हिमाचल में कालीधार पहाड़ी पर माता की जिह्वा गिरी थी. यही स्थान ज्वाला देवी के नाम से जाना जाता है।
नौ ज्योति जलती हैं: ज्वाला माता के मंदिर में चट्टानों के बीच से नौ दिव्य ज्वालाएं प्रज्ज्वलित होती रहती हैं। इस मंदिर में इन्हीं पवित्र ज्वालाओं की पूजा की होती है। मंदिर के पास ही ‘गोरख डिब्बी’ है जहां एक कुण्ड में पानी खौलता हुआ प्रतीत होता किन्तु छूने पर ठंडा लगता है। ज्वाला देवी के मंदिर का निर्माण कांगड़ा के राजा भूमिचंद ने करवाया था। मान्यता है कि इस क्षेत्र में एक किसान के पास एक गाय थी। किसान जब गाय का दूध निकालने जाता तो गाय के थन में दूध नहीं होता था। किसान इसका कारण ढूंढने के लिए एक दिन गाय के साथ-साथ गया। उसने देखा कि गाय एक स्थान पर रूक गयी वहां एक अद्भुत कन्या उस गाय का दूध पी रही है। किसान लौट कर चला आया और राजा को आकर सारी बात बताई। राजा ने इस स्थान पर मंदिर बनवाया। बाद में महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसारचंद ने 1835 में इस मंदिर का पूर्ण निमार्ण कराया।  
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साभारभास्कर समाचार 
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