मैनेजमेंट फंडा (एन. रघुरामन)
मैं हमेशा पुजारीजी के सहायक को देखता जो कुक की भूमिका में प्रसाद बनाने की जिम्मेदारी भी निभाता था। स्नान के बाद वह गीली धोती में ही गर्भग्रह के निकट के कमरे में प्रसाद बनाने के लिए प्रवेश करता, जहां उसे और पुजारीजी के अलावा किसी को जाने की अनुमति नहीं थी। मुझे हमेशा लगता कि उसे कोई एेसी गोपनीय रेसेपी मालूम है, जो गांव की किसी महिला को मालूम नहीं है। यही वजह है कि उसका स्वाद इतना अच्छा है। कुछ मात्रा में काली मिर्च को छोड़कर पोंगल में घी या काजू-किशमिश जैसी चीजें नहीं होती, जो घर में बनाए पोंगल में भरपूर मात्रा में होतीं। मेरी दादी बहुत अच्छी कुक थीं, इसके बावजूद उनके पोंगल का स्वाद कभी मंदिर के प्रसाद में मिलने वाले पोंगल से बेहतर नहीं होता। जब मैं यह बात उनसे कहता तो वे मुझे यकीन दिलातीं, 'ईश्वर को जो भी अर्पित किया जाए, उसका स्वाद हमेशा ही अद्भुत होता है।'
उसके बाद तो मैं दादी का बनाया पोंगल भी कावेरी गणपति को नैवैद्य चढ़ाने को कहता लेकिन, फिर भी वह सुबह 5 बजे मिलने वाले प्रसाद जैसा नहीं होता। फिर वे दलील देतीं कि प्रसाद ईश्वर के नेवैद्य के रूप में बनाया जाता है, जबकि घर में बनाए पोंगल को मेरे और दादाजी जैसों की लोलुप निगाहें देखतीं, जिससे इसका दिव्य स्वाद खत्म हो जाता। मुझे यह दलील कभी स्वीकार नहीं हुई, जब तक कि प्रसाद बनाने वाला कुक बीमार नहीं पड़ गया और प्रसाद के लिए हमारे घर से पोंगल भेजना पड़ा, क्योंकि यह हमारे परिवार का मंदिर था।
एक दिन पहले ही चूल्हे को गोबर से लीपा गया था और उस पर रंगोली बनाई गई थी। इमली की खटाई से साफ किया गया तांबे का चमचमाता बर्तन तैयार रखा था। अगली सुबह दादी घर के पिछवाड़े के आंगन में कुएं के पानी से नहाने की बजाय कावेरी नदी के तट पर गईं, जो हमारे घर से 700 मीटर दूर था। फिर गीली और पानी की बूंदें टपकाती नौ यार्ड की साड़ी पहनकर लौटीं। मैं उनके साथ नदी तट तक गया और वापस भी आया। अपने घर के आगे बहुत बड़ी रांगोली बना रही एक महिला ने दादी से पूछा, 'क्या आज मंदिर के पुजारी का सहायक नहीं आया?' मेरी दादी ने सिर्फ स्वीकार की मुद्रा में सिर हिलाया, क्योंकि उनके ओंठ तो कोई श्लोक बुदबुदा रहे थे। वे सीधे पिछली रात अच्छी तरह स्वच्छ किए किचन में गईं और पोंगल बनाना शुरू कर दिया। जब मैं किचन में गया तो काफी दूर से ही मेरे दादाजी ने मुझे वहां से भाग दिया। वे किचन की रखवाली मंदिर के किसी द्वारपालक की तरह कर रहे थे। उस दिन तो दादाजी को भी पोंगल बनने और मंदिर के पुजारी द्वारा खुद उसे ले जाने तक सुबह की काफी तक नहीं मिली। मेरा भरोसा करें, उस दिन का पोंगल स्वाद में उस पोंगल से कहीं ज्यादा अच्छा था, जो बरसों से मैं घर में खा रहा था। बाद के वर्षों में मुझे धीरे-धीरे यह अहसास हुआ कि रेसीपी की सारी चीजों और कुक के भी वही होने के बाद भी कोई बात ऐसी होती है, जिसके कारण प्रसाद को भक्ति के साथ बनाने पर उसका स्वाद अद्भुत हो जाता है।
फंडा यह है कि जिंदगीमें ऐसी कई बातें होती हैं कि जिनका अर्थ किताब में नहीं पाया जाता जैसे भक्ति और दिव्य स्पर्श- इन्हें तो सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है।
शुक्रवार को मेरे वॉट्सअप परिचितों में से एक इंदौर की पुष्पा भिमटे ने यह मैसेज भेजा,'जब हम किसी मंदिर में प्रसाद ग्रहण करते हैं तो कभी शिकायत नहीं करते कि यह बहुत खारा या मीठा है। हम उसे ईश्वर का उपहार
समझकर इसे स्वीकार कर इसका आनंद लेते हैं। सफलता मिले या असफलता, प्रशंसा मिले या आलोचना इसे भी ईश्वर का उपहार समझकर खुश रहे और जिंदगी में शांति अनुभव करें।' यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। यह संदेश मुझे जिंदगी के फ्लैशबैक में ले गया। बचपन में मैं तमिलनाडु के कुंभकोणम के नज़दीक उमयालपुरम स्थित कावेरी नदी के किनारे के गणपति मंदिर में नियमित रूप से सुबह पांच बजे जाता था। अाकर्षण होता था प्रसाद में मिलने वाला गरमागरम पोंगल। स्कूल के पहले कावेरी में 30 मिनट स्नान, फिर केले के पत्तों पर गरमागरम पोंगल मेरा रोज का रूटीन था। मैं हमेशा पुजारीजी के सहायक को देखता जो कुक की भूमिका में प्रसाद बनाने की जिम्मेदारी भी निभाता था। स्नान के बाद वह गीली धोती में ही गर्भग्रह के निकट के कमरे में प्रसाद बनाने के लिए प्रवेश करता, जहां उसे और पुजारीजी के अलावा किसी को जाने की अनुमति नहीं थी। मुझे हमेशा लगता कि उसे कोई एेसी गोपनीय रेसेपी मालूम है, जो गांव की किसी महिला को मालूम नहीं है। यही वजह है कि उसका स्वाद इतना अच्छा है। कुछ मात्रा में काली मिर्च को छोड़कर पोंगल में घी या काजू-किशमिश जैसी चीजें नहीं होती, जो घर में बनाए पोंगल में भरपूर मात्रा में होतीं। मेरी दादी बहुत अच्छी कुक थीं, इसके बावजूद उनके पोंगल का स्वाद कभी मंदिर के प्रसाद में मिलने वाले पोंगल से बेहतर नहीं होता। जब मैं यह बात उनसे कहता तो वे मुझे यकीन दिलातीं, 'ईश्वर को जो भी अर्पित किया जाए, उसका स्वाद हमेशा ही अद्भुत होता है।'
उसके बाद तो मैं दादी का बनाया पोंगल भी कावेरी गणपति को नैवैद्य चढ़ाने को कहता लेकिन, फिर भी वह सुबह 5 बजे मिलने वाले प्रसाद जैसा नहीं होता। फिर वे दलील देतीं कि प्रसाद ईश्वर के नेवैद्य के रूप में बनाया जाता है, जबकि घर में बनाए पोंगल को मेरे और दादाजी जैसों की लोलुप निगाहें देखतीं, जिससे इसका दिव्य स्वाद खत्म हो जाता। मुझे यह दलील कभी स्वीकार नहीं हुई, जब तक कि प्रसाद बनाने वाला कुक बीमार नहीं पड़ गया और प्रसाद के लिए हमारे घर से पोंगल भेजना पड़ा, क्योंकि यह हमारे परिवार का मंदिर था।
एक दिन पहले ही चूल्हे को गोबर से लीपा गया था और उस पर रंगोली बनाई गई थी। इमली की खटाई से साफ किया गया तांबे का चमचमाता बर्तन तैयार रखा था। अगली सुबह दादी घर के पिछवाड़े के आंगन में कुएं के पानी से नहाने की बजाय कावेरी नदी के तट पर गईं, जो हमारे घर से 700 मीटर दूर था। फिर गीली और पानी की बूंदें टपकाती नौ यार्ड की साड़ी पहनकर लौटीं। मैं उनके साथ नदी तट तक गया और वापस भी आया। अपने घर के आगे बहुत बड़ी रांगोली बना रही एक महिला ने दादी से पूछा, 'क्या आज मंदिर के पुजारी का सहायक नहीं आया?' मेरी दादी ने सिर्फ स्वीकार की मुद्रा में सिर हिलाया, क्योंकि उनके ओंठ तो कोई श्लोक बुदबुदा रहे थे। वे सीधे पिछली रात अच्छी तरह स्वच्छ किए किचन में गईं और पोंगल बनाना शुरू कर दिया। जब मैं किचन में गया तो काफी दूर से ही मेरे दादाजी ने मुझे वहां से भाग दिया। वे किचन की रखवाली मंदिर के किसी द्वारपालक की तरह कर रहे थे। उस दिन तो दादाजी को भी पोंगल बनने और मंदिर के पुजारी द्वारा खुद उसे ले जाने तक सुबह की काफी तक नहीं मिली। मेरा भरोसा करें, उस दिन का पोंगल स्वाद में उस पोंगल से कहीं ज्यादा अच्छा था, जो बरसों से मैं घर में खा रहा था। बाद के वर्षों में मुझे धीरे-धीरे यह अहसास हुआ कि रेसीपी की सारी चीजों और कुक के भी वही होने के बाद भी कोई बात ऐसी होती है, जिसके कारण प्रसाद को भक्ति के साथ बनाने पर उसका स्वाद अद्भुत हो जाता है।
फंडा यह है कि जिंदगीमें ऐसी कई बातें होती हैं कि जिनका अर्थ किताब में नहीं पाया जाता जैसे भक्ति और दिव्य स्पर्श- इन्हें तो सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है।
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साभार: भास्कर समाचार
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