देश की चुनाव प्रक्रिया पर राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दोनों ने ही सवाल उठाए हैं। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा कि पार्लियामेंट्री गवर्नेंस की व्यवस्था ही ऐसी है कि यहां 100 में 51 हासिल करने वाले को
सारे अधिकार मिल जाते हैं। लेकिन अपने देश में तो 51 से कम पाने वाले भी सारे अधिकारों के मजे लेते हैं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। वहीं, जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा, 'चुनाव में खरीदने की ताकत के लिए कोई जगह नहीं है। उम्मीदवारों को समझना चाहिए कि चुनाव लड़ना कोई निवेश करना नहीं है। चुनाव प्रक्रिया को अपराधमुक्त करना बड़ी जरूरत है। लोग गुणों के आधार पर उम्मीदवार चुनें, कि अवगुणों के आधार पर। मतदाता जब बिना लालच वोट डालने जाएगा, वह दिन लोकतंत्र के लिए गौरवशाली होगा।' राष्ट्रपति और सीजेआई 'चुनावी मुद्दों के संदर्भ में आिर्थक सुधार' विषय पर बोल रहे थे।दोनों के भाषण के प्रमुख अंश...
- चुनावी वादे पूरे नहीं होना कभी भी चुनावी मुद्दा नहीं बनता। वादे पूरे होने पर किसी को अंजाम भुगतने की चिंता नहीं है। हर पार्टी बड़ी बेशर्मी से बहाना ढूंढ़ लेती है कि सहयोगी दलों में सहमति नहीं बन पाई। हमारे कानून में भी इसे रोकने की कोई व्यवस्था नहीं है। वहीं, लोग जल्द ही सब भूल जाते हैं। ऐसे में चुनावी घोषणा पत्र कागज का टुकड़ा बनकर रह जाते हैं। इसके लिए राजनीतिक दलों को जिम्मेदार बनाना होगा।
- देश में चुनावी राजनीति सामाजिक समूहों को जुटाने और उनके राजनीतिकरण के इर्द-गिर्द घूमने लगी है। हर संसदीय क्षेत्र में जीत के लिए अलग-अलग तरीके से जातीय मुद्दे उठाए जाते हैं। हाशिए पर रहे वर्ग जब से बड़ी तादाद में वोट डालने लगे हैं, चुनावी नतीजों में अप्रत्याशित अस्थिरता सी गई। इसके चलते पार्टियों ने नए-नए राजनीतिक गठबंधन, साेशल इंजीनियरिंग और समर्थन ढूंढ़ने शुरू कर दिए।
- 1957 और 1984 के चुनाव छोड़ दें तो किसी दल को लोकसभा में 50% से ज्यादा वोट नहीं मिले। 1984 में भी कांग्रेस को 48.6% वोट ही मिले थे। कुछ सालों में गठबंधन सरकारों के कारण देश ने काफी ढुलमुल स्थिति देखी। 1989 से 1999 के बीच 3 चुनाव होने थे। 1989, 1994 आैर 1999 में। पर हुए पांच। इस दौरान अवसरवादी गठबंधन अस्तित्व में आए। हमारे सिस्टम की कमियां जानने के लिए चुनाव प्रणाली का विश्लेषण जरूरी है।
- 1976 में 42वें संविधान संशोधन से संसदीय सीटों की संख्या तय कर दी गई। 1971 की जनगणना आधार बनी। 84वें संशोधन से यह सीमा 2006 तक बढ़ा दी गई। नतीजा देखिए, आज लोकसभा आबादी के 1971 के आंकड़े का प्रतिनिधित्व कर रही है। जबकि आबादी कई गुना बढ़ चुकी है। लोकसभा की 543 सीटें ही 128 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करती हैं। हमें संसद में सीटें बढ़ानी होंगी। ब्रिटेन की आबादी बहुत कम है। पर वहां 600 से ज्यादा सांसद हैं।
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार
For getting Job-alerts and Education News, join our Facebook Group “EMPLOYMENT BULLETIN” by clicking HERE. Please like our Facebook Page HARSAMACHAR for other important updates from each and every field.