Saturday, May 13, 2017

श्रद्धांजलि: लेफ्टिनेंट उमर फैयाज की हत्या कुटिल रणनीति का नतीजा

सैयद अता हसनैन (लेफ्टि.जन रिटायर्ड, कश्मीर में सेना की 15वीं कोर के पूर्व कमांडर)
लेफ्टिनेंट उमर फैयाज अनंतनाग के स्कूल से निकले थे और दिसंबर 2012 में नेशनल डिफेंस एकेडमी (एनडीए) में शामिल हुए। दिसंबर 2016 में वे कमीशन हासिल कर भारतीय सेना के अधिकारी बनें। उन्हें 2
राजपुताना राइफल्स में शामिल होना ऐसा सम्मान है कि कोई भी युवा ही होगा। इसी यूनिट ने करगिल युद्ध में टोलोलिंग पर कब्जा किया और इसे सेना की कुछ सबसे बहादुर इकाइयों में शामिल किया जाता है। सेना में शामिल होने के बाद पहली छुट्‌टी पर वे जब अपने गृह नगर कुलकाम के समीप शोपियां में विवाह समारोह के लिए आए तो आतंकियों ने अपहरण कर उनकी हत्या कर दी। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। उमर फैयाज के एनडीए प्रवेश का घाटी में कई लोगों ने वैसा ही जश्न मनाया जैसे कई अन्य कश्मीरी युवाओं का मनाया था, जिन्होंने सिविल सेवा परीक्षा अथवा अन्य प्रतियोगी परिक्षाओं में सफलता प्राप्त की थी और खेल सांस्कृतिक गतिविधियों में अपनी पहचान बनाई थी। सेना के अधिकारी वर्ग में कश्मीरी युवाओं की भर्ती कोई नई बात नहीं है। हालांकि, 1989 में आतंकी गतिविधियां शुरू होने के बाद पृथकतावादियों के दबाव के कारण सशस्त्र सेनाओं को कॅरिअर के रूप में चुनने में कुछ उदासीनता गई। फिर भी जज़्बे और जुनून के कई उदाहरण रहे हैं और यह चलन बड़ा रूप लेने लगा था। लोगों को यह जानकर अच्छा लगेगा कि कश्मीरी जेएके लाइट इन्फेंट्री या जेएके राइफल्स में जवानों के रूप में शामिल होते रहे हैं और भर्ती की दृष्टि से बीएसएफ, सीआरपीएफ और जम्मू-कश्मीर पुिलस बहुत लोकप्रिय रहे हैं। 8 जुलाई 2016 को बुरहान वानी की मौत और उसके बाद के खून-खराबे के बाद भी सेना पुलिस भर्ती केंद्रों पर लंबी कतारों में कोई कमी नहीं है। पत्थर फेंकने वालों में से भी बहुतों ने भर्ती के लिए नाम दर्ज कराया है। ट्राल जैसी तहसील (बुरहान वानी का कस्बा) हिजबुल को आतंकी देने से कहीं अधिक वफादार देशभक्त सैनिक सेना को दिए हैं। 
जाहिर है कि आतंकवादियों, पृथकतावादियों अथवा सीमा पार पाकिस्तान में बैठे उनके आंकाओं में किसी शातिर दिमाग के ध्यान में आया होगा कि इस्लामी और पृथकतावादी जुनून के बावजूद 'रोजी रोटी' और भारतीय रणनीतिक संवाद प्रयासों के कारण कश्मीरी युवा दूर होते जाएंगे। बॉलीवुड और खेल के क्षेत्र में प्रतिभाशाली कश्मीरियों को जो पहचान मिल रही है उससे एक ऐसी पीढ़ी तैयार होगी जो कश्मीर में रोल मॉडल बनने के मामले में बुरहान वानी और पाकिस्तानी क्रिकेटरों को टक्कर देंगे। यह भारत के खिलाफ विरोध भड़काने के अभियान के लिए अस्वीकार्य है। 
दस मई को मैं एक टीवी पेनल में था और एंकर ने बड़े गर्व से बताया कि जनमत संग्रह में भाग लेने वाले 94 फीसदी भारतीयों ने लेफ्टिनेंट फैयाज की हत्या को 'बौखलाहट' में की गई हत्या बताया है। यहीं पर वे और उन 94 फीसदी लोग गलत हैं, क्योंकि प्रतिक्रिया अनुभव और विश्लेषण के आधार पर नहीं दी गई। यह कोई बौखलाहट नहीं बल्कि गहराई से सोची गई रणनीति है, जो कुटिल दिमाग ही सोच सकता है। इसका दीर्घकालीन उद्‌देश्य है और जिसके नतीजे भारत के लिए बहुत नकारात्मक हैं। लेफ्टिनेंट फैयाज के पहले पांच कश्मीरी पुलिसकर्मी और दो बैंक गार्ड का मारा जाना आतंकवाद की प्रकृति में बदलाव रेखांकित करता है। उन्हें कोई असमंजस नहीं है कि शिकार कौन है- उनके लिए कश्मीरी भी दूसरों से भिन्न नहीं है। 
1995 में अल फिरन द्वारा पांच विदेशियों का अपहरण, फिर उनमें से एक का सिर काटने और अन्य लोगों के गायब होने से विदेशी आतंकियों के अत्यधिक क्रूर होने की छवि बन गई। मोटेतौर पर स्थानीय आतंकियों की छवि यह है कि वे उतने क्रूर नहीं हैं, वे स्थानीय लोगों या राजनेताओं को निशाना नहीं बनाते और उनमें किलर इंस्टिंक्ट का अभाव है। वास्तव में इनमें से कुछ भी सच नहीं है जैसाकि मुखबिरों के सिर काटे जान, सरपंचों की हत्याओं और इखवान (विरोधी गुट) के खात्मे की घटनाओं से जाहिर है। जम्मू-कश्मीर पुलिस कोई हल्का बल नहीं है। अभियानों में मैंने कई बहादुर कश्मीरी पुलिसकर्मी देखे हैं और धमकियों के बाद इतने आतंक में उनकी दृढ़ता को मैं सलाम करता हंू। चूंकि दबाव में वे कई बार झुक जाते हैं, इसलिए कड़ा संदेश भेजने के लिए सैन्य निशाने जरूरी हैं। 
साफ है कि कोई उमर फैयाज की गतिविधियों पर नज़र रखे हुए था।पुलिसकर्मियों को धमकाए जाने से सुरक्षा बलों की खुफिया जानकारी पाने की क्षमता घटी है। लेकिन, इन घटनाओं के नतीजे क्या होंगे और इन्हें भविष्य में कैसे टाला जाए, यही पाठक जानना चाहेंगे। 
पहला असर तो यह होना चाहिए कि अब जहां तक सेना और सुरक्षा बलों का सवाल है तो सारी नरमी परे रख देनी चाहिए। स्थानीय आतंकियों के नरम होने जैसी कोई बात नहीं है और यह बात हर सैनिक के दिमाग में उतार देनी चाहिए। इसका मतलब स्थानीय लोगों को धमकाने का सिलसिला शुरू करने से नहीं बल्कि अधिक विवेक तथा ऊर्जा के इस्तेमाल से है। दक्षिण कश्मीर में खतरे के अनुरूप सेना की तैनाती नहीं है। इसकी समीक्षा होनी चाहिए। आतंकियों की आवाजाही को रोकने और आंदोलनों से निपटने के लिए अधिक पुलिस और अधिक सेना की जरूरत है। कुलगाम में आरआर सेक्टर के हेडक्वार्टर की आवश्यकता है। नब्बे के दशक में आतंकवाद के चरम दिनों में वहां ऐसा एक मुख्यालय था। वीबाग, कुलगाम और शोपियां के त्रिकोण में अधिक यूनिट तुरंत चाहिए। 'बैक टू बेसिक' जैसे अभियान होने चाहिए- कई चेक पॉइंट, कई घेराव तलाशी अभियान, खुफिया सूत्रों को बढ़ाना और तलाशी और खत्म करने वाले अभियान जंगल बियाबान इलाकों में चलाने होंगे, जो इस क्षेत्र में बहुतायत में है। 
सेना पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों की चिंता क्या होनी चाहिए? यही कि स्थानीय आतंकी किस हद तक जा सकते हैं। मुझे लगता है आगे जाकर पहले से जर्जर अर्थव्यवस्था और कमजोर करने के लिए भारतीय पर्यटकों, अमरनाथ यात्रा को निशाना बनाया जा सकता है ताकि आतंक पैदा हो। आखिर में वे आत्मघाती बम विस्फोटों पर उतर सकते हैं। ऐसा कुछ नहीं भी हो सकता है लेकिन, जब आपको सीमा पार से खूनी अभियान चलाने वाले सांप-बिच्छुओं से निपटना हो तो फिर खतरे का आकलन करने में कल्पना की उड़ान लगाने में कोई हर्ज नहीं है। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं) 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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