मैं ऐसा बच्चा था, जो प्रश्न बहुत पूछता था लेकिन, मेरे माता-पिता ने कभी 'शट-अप' कहकर डांटा नहीं। एक ऐसा ही प्रश्न मुझे अब भी स्पष्ट रूप से याद है और जिसके उत्तर ने मुझे इतिहास में रुचि पैदा कर दी थी। मैसूर
की पारिवारिक यात्रा के दौरान वह प्रश्न यह था कि शिवाजी और टीपू सल्तान जैसे शक्तिशाली राजाओं द्वारा शासित क्षेत्रों में रेल सेवाएं क्यों नहीं हैं। रेलवे में ही काम करने वाले मेरे पिताजी कहा कि अंग्रेज नहीं चाहते थे कि ये शक्तिशाली शासक रेलवे का इस्तेमाल कर व्यापार की मुख्यधारा में आएं अथवा सैनिक हथियारों को ट्रेनों के जरिये एक से दूूसरे स्थान पर ले जाने की क्षमता हासिल करें। इसीलिए ब्रिटिश शासकों ने या तो अलग-अलग गैज वाला मीटर और नेरो गैज- रेलवे सिस्टम बनाया या रायगढ़ जैसे इलाकों में रेलवे ट्रैक ही नहीं बनाए। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। फिर उन्होंने मुझे टीपू सुल्तान द्वारा शक्तिशाली अंग्रेजों से लड़ने के लिए बारूद और हथियार को इकट्ठा करके रखने के लिए इस्तेमाल 10 में से एक शस्त्रागार दिखाया। यह 228 साल पुराना स्मारक रेलवे लाइन के पास ही था। हम जब वह शस्त्रागार देखने गए तो, मैं जिज्ञासा के साथ उसे देख रहा था और तभी पास की रेलवे लाइन से ट्रेन गुजरी और तत्काल मेरे पिता दौड़कर मेरे पास आए और कहा, 'देखो, ट्रेन जा रही है लेकिन, इससे मात्र 15 मीटर की दूरी पर हमें मामूली कंपन भी नहीं महसूस हुए।' फिर उन्होंने बड़े गर्व से कहा कि यह उन दिनों की सिविल इंजीनियरिंग का चमत्कार है। वे उन शस्त्रागारों की बारीकियों का वर्णन करते ही जा रहे थे। तब तो मुझे उनके इंजीनियरिंग के ज्ञान पर भरोसा नहीं था पर मुझे चुप रहना पड़ा, क्योंकि वे मेरे पिताजी थे और मैं उन्हें चुनौैती नहीं दे सकता था। फरवरी 2017 में जब मैं अमेरिका की वोल्फ प्राइवेट लिमिटेड के प्रोजेक्ट मैनेजर जैमिन बकिंगघम से मिला। उन्होंने वही बातें कहीं, जो 40 साल पले मेरे पिताजी ने कही थी। उन्होंने कहा कि अपने पूरे कॅरिअर में उन्होंने इतना मजबूत शस्त्रागार यानी आर्मरी नहीं देखी और यह तो पत्थर की इमारत से भी ज्यादा मजबूत है। वोल्फ कंपनी को भारत सरकार ने इस 12 मीटर चौड़े और 10 मीटर ऊंचाई वाली रचना को बिना कोई नुकसान पहुंचाए मौजूदा जगह से 130 मीटर दूर ले जाने का ठेका दिया है ताकि अतिरिक्त रेल लाइनें बिछाई जा सकें। रेलवे के स्थानीय अधिकारी दबाव में थे, क्योंकि रेल से रोज आने-जाने वाले जो यात्री 20 साल पहले 400 थे, वे 2009 में बढ़कर 4 हजार हो गए थे। वे लाइन बदल नहीं सकते थे। ऐसे में कुछ अधिकारियों ने सुझाव दिया कि रेलवे लाइन के पास वाली एक आर्मरी को गिराकर मौजूदा जगह से 150 मीटर की दूरी पर फिर बनाया जाए। यह सबसे आसान काम था लेकिन, स्थानीय लोग इससे राजी नहीं हुए। वे इन स्मारकों की बहुत कद्र करते थे और कहने लगे कि यह तो इनका सिर काट देने जैसी बात होगी। उसके बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के साथ मिलकर रेलवे ने जमीन में आधी धंसी इस रचना को दूसरी जगह ले जाने का फैसला किया और 13.5 करोड़ रुपए का ठेका दिया गया। वोल्फ प्रोजेक्ट मैनेजर से मिलकर इस स्मारक के विभिन्न पहलुओं के बारे में सुनकर मुझे अहसास हुआ कि मेरे पिताजी ने एकदम सही इतिहास मुझे बताने के लिए कितनी तकलीफ उठाई होगी, जबकि वे जानते थे कि मेरी उम्र वैसी नहीं थी कि मैं इंजीनियरिंग के चमत्कार समझ सकूं। वे मानते थे कि हमें जो कहना है, वह कहना चाहिए। समय के साथ बच्चे का दिमाग उनका अर्थ समझ जाएगा। उनकी सोच कितनी सही थी।
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार
For getting Job-alerts and Education News, join our Facebook Group “EMPLOYMENT BULLETIN” by clicking HERE. Please like our Facebook Page HARSAMACHAR for other important updates from each and every field.