छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एक स्कूल है, अस्वच्छ धंधा। इसका नाम लेने से यहां पढ़ने और पढ़कर निकले बच्चे भी शर्म महसूस करते हैं। स्कूल प्रबंधन भी सरकारी स्कूल है कहकर मुंह मोड़ लेता है। सरकार और
अफसरों की गलती के कारण ऐसा 15 साल से जारी है। चांटीडीह क्षेत्र में अस्वच्छ धंधा नामक इस स्कूल के नाम को बदलने की कोशिश हर साल होती है, पर केंद्र से आदिवासी विकास विभाग को इसी के नाम पर होने वाली फंडिंग के फेर में फिर सब अटक जाता है। अधिकारियों से इस साल फिर नाम बदलने की मांग की गई है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। इस स्कूल में पहली से पांचवीं तक 50 बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं। इनके लिए हॉस्टल की व्यवस्था भी की गई है। मंशा है कि मजदूर वर्ग के बच्चों को शिक्षित कर सरकारी योजना से जोड़कर आगे बढ़ाया जा सके। सालभर पहले यहां बड़े अक्षरों में स्कूल का नाम दीवारों पर लिखा गया था। कुछ लोगों ने ऐतराज जताया तो इसे मिटाकर अनुसूचित जाति बालक आश्रम और स्कूल का नाम रख दिया गया। लेकिन सरकारी दस्तावेजों में आज भी अस्वच्छ धंधा नाम चला रहा है। केंद्र सरकार सहायता भी इसी के नाम पर भेजती है। इसलिए नाम बदलने की फाइल फिर रोक दी जाती है। यहां मस्तूरी, पथरिया, बिल्हा, सरगांव और दूसरे क्षेत्र के बच्चे हॉस्टल में रहकर पढ़ाई करते हैं। पहले बच्चों का रजिस्ट्रेशन होता और इसके बाद इन्हें एडमिशन दिया जाता है। कई बार ऐसा हुआ है कि औचक निरीक्षण के दौरान अधिकारी जब यहां पढ़ने वाले बच्चे से उसका नाम पता और स्कूल पूछते हैं तो अपना, माता, पिता और गांव का नाम तो ठीक बताता है, पर स्कूल के नाम पर आकर ठहर जाता है। अधिकारियों के सामने तो नहीं पर जाने के बाद दबी आवाज में शिक्षकों से कहते हैं सर, प्लीज स्कूल का नाम बदलवा दीजिए। बताने में भी शर्म आती है। स्कूल प्रबंधन भी चाहता है कि नाम में बदलाव हो, पर प्रक्रिया अफसरों को करवानी है, इसलिए वे खामोश हो जाते हैं।
बच्चों ने कहा- परेशानी तो होती है भैया, लेकिन क्या करें: यहां पढ़ने वाले दुर्गेश, अखिलेश, मयंक, विकलेश बातचीत करने पर बताते हैं कि उन्हें स्कूल का नाम लेने में दिक्कत होती है। ये सारे बच्चे चौथी और पांचवीं क्लास के हैं। वे अपने गांव में भी यहां का नाम लेने के बजाय सरकारी स्कूल में पढ़ने और हॉस्टल में रहने की बात कहते हैं।
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साभार: भास्कर समाचार
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