एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
स्टोरी 1: इस रविवार सुबह मैं भोपाल के जेहनुमा पैलेस होटल से चेकआउट करते समय वाकई बहुत जल्दी में था। मैं तड़के 2 बजे होटल में आया था और ठीक 7:15 बजे छोड़कर जा रहा था ताकि मैं अपने अगले आयोजन
में समय पर पहुंच जाऊं, जो इंदौर में 9:30 बजे था। मुझे मेरे सहयोगी ने जल्दी से नाश्ता करने की सलाह दी, क्योंकि पूरा रविवार ही कार्यक्रमों से भरा था और हमारा भोजन कब होगा कुछ कहा नहीं जा सकता था। समय मिलेगा भी कि नहीं पता नहीं था। हर माह में एक-दो दिन ऐसी व्यस्तता रहती है और इसलिए शरीर की नियमितता बनाए रखने के लिए विशेष ध्यान रखना पड़ता है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। जिस तरह से हम दोनों जेहनुमा के फर्स्ट फ्लोर पर स्थित रेस्तरां में नाश्ता कर रहे थे, उसे देखकर कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसे हमारी व्यस्तता का पता हो, यही सोचेगा कि हम फाइव स्टार कल्चर के योग्य नहीं हैं। सिर्फ हम नाश्ता कर रहे थे बल्कि रास्ते के लिए कुछ फल मफीन भी रखते जा रहे थे। सच तो यह है कि जब मैंने संतरे केले ले जाने के लिए कैरी बैग मांगा तो वहां का स्टाफ कुछ असहज नज़र आया। मुझे उनके व्यवहार में बेचैनी महसूस हुई। किंतु, उन्होंने पूरे समय शांति बनाए रखी। उन कुछ मिनटों में खाने के साथ हमारी चर्चा भी चल रही थी और आंखों की किनोर से मैं देख पा रहा था कि स्टाफ का एक सदस्य धैर्यपूर्वक इंतजार कर रहा था कि मैं अपनी बात पूरी करके उसकी ओर ध्यान दूं। वह कुछ कहना चाहता था।
जैसे ही मैं उसकी तरफ मुड़ा उसने माफी मांगते हुए मेरा रूम नंबर पूछा, क्योंकि वह जानता था कि मेरे जैसे जल्दी में होने वाले लोग इस जैसे मामूली सवाल पर भी हंगामा मचा देते हैं। वे इतने सक्षम होते हैं कि यह भी कह सकते हैं, 'क्या तुम्हें लगता है कि मैं मुफ्तखोर हूं; मैं तुम्हारा होटल खरीद सकता हूं, मेरा रूम नंबर पूछने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई।' ऐसे कमेट्स आम होते हैं। होटल के कायदे और मेहमानों का अहंकार, उनकी प्रतिष्ठा के बीच ये बेचारे फंस जाते हैं। होटल में सेवाएं देने वाले स्टाफ के किसी भी सदस्य से पूछिए वे आपको इससे खराब कमेंट सुना देंगे। मैंने अपना रूम नंबर बताया और कहा, 'आपको माफी मांगने की जरूरत नहीं है। आपको मेरा रूम नंबर पूछने का पूरा अधिकार है, क्योंकि मैं आपके रेस्तरां में आया हूं। आप मेजबान और मैं मेहमान हूं' उसने कहा, 'मेरी स्थिति समझने और सौम्यता दिखाने के लिए धन्यवाद सर' और चला गया। वह उसके सर्विस स्टैंडर्ड के लिए बदलाव का क्षण था। अगले तीन मिनटों तक जब तक मैं वहां था, उसने मुझे महाराजा होने का अहसास करा दिया और मुझे हर वह चीज दी, जो मेरी सड़क यात्रा के लिए जरूरी थी। उसने खुद ही तय कर लिया कि मुुझे अपनी इस यात्रा के लिए कौन-सी चीजों की जरूरत पड़ सकती है। यह वही व्यक्ति था, जिसने मेरे द्वारा संतरा उठाने पर मुझे बहुत ही तिरस्कारपूर्वक मुझे देखा था।
स्टोरी 2: शनिवार रात को मैं भोपाल से सौ किलोमीटर से कुछ अधिक दूरी पर स्थित छोटे से कस्बे बरेली में था, जो नर्मदा नदी के वरदहस्त के अलावा अपने समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों के लिए जाना जाता है। जाहिर था कि नर्मदा मां ने हर किसी को भौतिक समृद्धि दी है। उस छोटे से शहर के ज्यादातर लोगों ने भोपाल में बड़े-बड़े फ्लैट खरीद रखे हैं ताकि बच्चों को उच्चशिक्षा के लिए वहां भेजा जा सके। अभी वे बच्चे स्थानीय स्कूलों में पढ़ रहे हैं, जिससे स्थानीय लोगों के कैश फ्लो का पता चलता है। बाहरी व्यक्ति के रूप में मुझे लगा कि इस छोटे से शहर में ऐसे लोग ज्यादा हैं, जिन्हें प्रकृति के प्रति सम्मान नहीं है और इस ग्रीन बेल्ट में सब जगह फैला कचरा मेरी इस धारणा की पुष्टि करता था। समृद्धि के साथ जिम्मेदारी की भावना भी आनी चाहिए, खासतौर पर अपने आसपास के पर्यावरण को लेकर तो यह जरूर होना चाहिए।
यह व्यवहार मुझे सीधे न्यूजीलैंड सरकार के फैसले की ओर ले गया, जिसने पिछले माह अपनी 'ते आवा तुपुआ' नदी को किसी मानव की तरह पूरे अधिकार दिए हैं। एक हफ्ते बाद हमारी गंगा और यमुना नदियों को भी वही दर्जा मिल गया। महत्वपूर्ण फर्क यह था कि न्यूजीलैंड में यह निर्णय जन-प्रतिनिधियों ने लिया था, जबकि हमारे यहां यह फैसला उत्तराखंड हाईकोर्ट ने लिया। ध्यान रह कि कोर्ट को हमें यह इसलिए याद दिलाना पड़ा, क्योंकि हम लोग इसे भूल गए हैं। आपने भी गौर किया होगा कि हमारे देश में पर्यावरण संरक्षण से संबंधित ज्यादातर कदम अदालतों द्वारा फैसले देने के बाद ही उठाए गए हैं।
फंडा यह है कि अच्छे व्यक्तिगत व्यवहार से लेकर सामूहिक समाजगत व्यवहार तक सबकुछ हम से ही शुरू होता है। पहला कदम हम में से प्रत्येक को ही उठाना होता है। पहल हमें ही करनी होती है।
स्टोरी 2: शनिवार रात को मैं भोपाल से सौ किलोमीटर से कुछ अधिक दूरी पर स्थित छोटे से कस्बे बरेली में था, जो नर्मदा नदी के वरदहस्त के अलावा अपने समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों के लिए जाना जाता है। जाहिर था कि नर्मदा मां ने हर किसी को भौतिक समृद्धि दी है। उस छोटे से शहर के ज्यादातर लोगों ने भोपाल में बड़े-बड़े फ्लैट खरीद रखे हैं ताकि बच्चों को उच्चशिक्षा के लिए वहां भेजा जा सके। अभी वे बच्चे स्थानीय स्कूलों में पढ़ रहे हैं, जिससे स्थानीय लोगों के कैश फ्लो का पता चलता है। बाहरी व्यक्ति के रूप में मुझे लगा कि इस छोटे से शहर में ऐसे लोग ज्यादा हैं, जिन्हें प्रकृति के प्रति सम्मान नहीं है और इस ग्रीन बेल्ट में सब जगह फैला कचरा मेरी इस धारणा की पुष्टि करता था। समृद्धि के साथ जिम्मेदारी की भावना भी आनी चाहिए, खासतौर पर अपने आसपास के पर्यावरण को लेकर तो यह जरूर होना चाहिए।
यह व्यवहार मुझे सीधे न्यूजीलैंड सरकार के फैसले की ओर ले गया, जिसने पिछले माह अपनी 'ते आवा तुपुआ' नदी को किसी मानव की तरह पूरे अधिकार दिए हैं। एक हफ्ते बाद हमारी गंगा और यमुना नदियों को भी वही दर्जा मिल गया। महत्वपूर्ण फर्क यह था कि न्यूजीलैंड में यह निर्णय जन-प्रतिनिधियों ने लिया था, जबकि हमारे यहां यह फैसला उत्तराखंड हाईकोर्ट ने लिया। ध्यान रह कि कोर्ट को हमें यह इसलिए याद दिलाना पड़ा, क्योंकि हम लोग इसे भूल गए हैं। आपने भी गौर किया होगा कि हमारे देश में पर्यावरण संरक्षण से संबंधित ज्यादातर कदम अदालतों द्वारा फैसले देने के बाद ही उठाए गए हैं।
फंडा यह है कि अच्छे व्यक्तिगत व्यवहार से लेकर सामूहिक समाजगत व्यवहार तक सबकुछ हम से ही शुरू होता है। पहला कदम हम में से प्रत्येक को ही उठाना होता है। पहल हमें ही करनी होती है।
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार
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