एन. रघुरामन (मैनेजमेंटगुरु)
रविवार सुबह आठ बजे मैं अहमदाबाद-मुंबई वेस्टर्न एक्सप्रेस हाईवे के सबसे बड़े सिग्नल पर इंतजार कर रहा था। मुंबई में कैमरा और ई-चालान के आने के बाद से ट्रैफिक नियमों का पालन बढ़ गया है। यह सिग्नल्स पर खड़े रहने वाले भिखारियों के लिए वरदान है। इनका पहला टार्गेट होती हैं कारें। अगर खिड़कियों पर गहरे शीशे लगे होते हैं और यह एकदम चमकदार है तो मतलब यह किसी सेलेब्रिटी की कार है। इस रविवार को मैं सिग्नल पर पहले पहुंचा, मेरी कार साफ और सफेद थी। यह लंबी थी और इसके शीशे भी गहरे थे। जाहिर है सिंग्नल पर निशाना बनाए जाने की अधिकतर पात्रताएं मेरे पास थी फिर यह अलग बात है कि मैं कोई सेलेब्रिटी नहीं हूं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। मेरी दाहिनी ओर लाल रंग की नॉन एसी बेस्ट बस खड़ी थी और धुर दाहिनी ओर एक ऑटोरिक्शा था। मैं तैयार था कि बुजुर्ग महिला भीख के लिए मुझ पर हमला करेगी, क्योंकि मैं वहां मौजूद बेस्ट बस और ऑटोरिक्शा में तो कम से कम सबसे अमीर नज़र ही रहा था। उसने जेबरा क्रॉसिंग पार किया और इंतजार कर रहे वाहनों के पास जाने लगी। मैंने गिअर के पास लगे कॉफी मग होल्डर में से कुछ सिक्के निकाल लिए थे और ड्राइविंग सीट के पास का शीशा मैंने थोड़ा नीचे कर लिया था, ताकि उसे पैसे दिए जा सकें। मैं उसे देख रहा था लेकिन, उस बुजुर्ग महिला ने मेरी कार की ओर देखा भी नहीं। वह बस के पास चली गई और खिड़की वाली सीट पर बैठे सभी यात्रियों से पैसे मांगने लगी। उसने नई मैनेजमेंट थ्योरी को अपनाया था- थ्योरी ऑफ प्रॉबेबिलिटी। इसमें आप अच्छे रिजल्ट के लिए ज्यादा-ज्यादा से टार्गेट को लक्ष्य करते हैं। 11 खिड़कियों में बैठे यात्रियों में से 4 ने उसे पैसे दिए। फिर वह बस की दूसरी तरफ चली गई। मैं उस तरफ देख तो नहीं पाया, लेकिन वह 21 सेकंड बाद उधर से फिर सामने आई। इसके बाद वह ऑटोरिक्शा की ओर चली गई और उसमें बैठे यात्री और ड्राइवर को टार्गेट किया। उसने मुझे पूरी तरह नज़रअंदाज कर दिया और स्पष्ट कहूं तो इससे मैंने थोड़ा अपमानित भी महसूस किया।
मैंने ऑटोरिक्शा में बैठे व्यक्ति की ओर देखा। उसके चेहरे पर दया के भाव थे। ऑटो वाले को उसने मीटर में जितना पैसा बना था वो दे दिया और इस महिला को 20 रुपए देकर ऑटो से उतर गया। और पास ही खड़ी बस की ओर बढ़ गया, जिसमें कुछ ही यात्री सवार थे। महिला चकित थी और मैं भी। मेरे चेहरे की ओर देखकर रिक्शा ड्राइवर ने कहा कि वह अच्छा आदमी है। उसने बस से जाने को प्राथमिकता दी, जो इत्तफाक से वहीं जा रही है, जहां उन्हें जाना था। उन्होंने ऑटो से जाने के बजाए इसमें लगने वाला पैसा इस महिला को दे दिया। मेरे हाथ का सिक्का उसके बर्तन में डालने के पहले मुझे थोड़ी झिझक हुई, लेकिन फिर भी मैंने ऐसा कर दिया। फिर ड्राइविंग करते हुए एक संत की बात मुझे याद आई। सत युग में चार तरह के मार्ग हैं- तप ( कीर्तन से तपस्या), शौच (शुद्धि), दया और सत्य। अगले त्रेता, द्वापर और कल युग में ये धीरे-धीरे गायब हो गए। संत का असल में मतलब यह था कि समय के साथ लोग इंद्रियों से ज्यादा प्रभावित होंगे। वे मंत्रों को जपने में असक्षम हो जाएंगे, इससे संयम खत्म हो जाएगा। इससे वे अंदर और बाहर दोनों स्तर पर प्रदूषित हो जाएंगे। इससे वे सच कम बोलने के लिए मजबूर हो जाएंगे और इस तरह अच्छाई भी कम हो जाएगी। लेकिन मैंने देखा कि व्यक्तिगत खर्च में संयम दिखाकर ऑटोरिक्शा में सवार वह व्यक्ति अच्छाई की ओर बढ़ रहा है। और भिखारी को भी यह समझ है कि इस कलयुग मैं ऐसा कौन कर सकता है- कम से कम कार मालिक तो नहीं!
फंडा यह है कि जिंदगीकदम-कदम पर हमें सबक देती है। कभी-कभी ट्रैफिक सिगनल्स पर भी जीवन के बड़े सबक मिल जाते हैं।
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साभार: भास्कर समाचार
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