पिछले कुछ हफ्तों से भारत में 'देशद्रोह' पर तीखी बहस चल रही है। राजधानी में काफी घटनाएं हुईं, जिन्होंने सारे देश का ध्यान खींचा। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से शुरू हुए इस विवाद ने भयानक रूप ले लिया है। ऐसे में जानना जरूरी है कि देशद्रोह क्या है और कानून इस विषय में क्या कहता है-
भारतीय दंड संहिता की धारा 124 के तहत 'देशद्रोह' को परिभाषित करते हुए मौखिक अथवा लिखित शब्दों, चिह्नों अथवा अन्य प्रकार से भारत में विधि संपन्न रूप से स्थापित सरकारों के विरुद्ध नफरत, अवमानना अथवा असंतोष भड़काने का प्रयास करता है, उसे उम्र कैद और जुर्माना अथवा तीन साल की कैद, जुर्माना या केवल जुर्माने की सजा सुनाई जा सकती है। इस परिभाषा के साथ तीन व्याख्याएं जोड़ी गई हैं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। इस संदर्भ में केदार नाथ सिंह बनाम स्टेट ऑफ बिहार मामले में 20 जनवरी 1962 को दिया गया सप्रीम कोर्ट की संवैधानिक का निर्णय मील का पत्थर है। उपरोक्त मामले में सुप्रीम कोर्ट ने तथ्यों पर कानून से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर इस कानून की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ इस पूरे प्रावधान की विस्तृत व्याख्या की। साथ ही यह निर्णय दिया कि शब्दों या भाषणों को राजद्रोह के लिए तभी आपराधिक माना जा सकता है, जब भीड़ को हिंसक कार्रवाई के लिए उकसाया गया हो। साथ ही उकसाने के कारण भीड़ हिंसा पर उतर आई हो। मात्र शब्द या वाक्य चाहे वे कितने भी रुखे क्यों हों यदि वाक्यों से हिंसा नहीं हुई है तो राजद्रोह का आधार नहीं बनेगा।
उच्चतम न्यायालय ने इसी मामले में यह भी स्पष्ट किया कि नागरिकों को सरकार के बारे में या उसके द्वारा किए कामों के बारे में अपनी पसंद के अनुसार बोलने, लिखने का अधिकार है और जब तक कि उनकी आलोचना या टिप्पणी द्वारा लोगों को विधि सम्मत सरकार के विरुद्ध हिंसा करने को नहीं भड़काया गया हो अथवा सार्वजनिक अव्यवस्था फैलाने की नीयत हो। सुप्रीम कोर्ट ने धारा 124 की सशब्द व्याख्या से भी इनकार किया। इसी निर्णय में उन्होंने मौजूदा प्रावधान की अंग्रेजी राज के समय में प्रिवी काउंसिल के निर्णय की भी व्याख्या की। प्रिवी काउंसिल के समय अभियोजन पक्ष को यह स्थापित करने की आवश्यकता नहीं थी कि हिंसा भड़काने की नीयत या प्रस्तुति या सार्वजनिक अव्यवस्था कायम करने की नीयत है।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि केवल उन्हीं गतिविधियों में मामला दर्ज किया जा सकता है, जहां हिंसा का सहारा लेकर अव्यवस्था तथा सार्वजनिक शांति भंग करने की नीयत या प्रवृत्ति हो।
एक अन्य मामला बलवंत सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब में वर्ष 1995 में यह निर्णय दिया कि दो व्यक्तियों द्वारा एक या दो बार यूं ही नारे लगा दिए जाने मात्र से देशद्रोह का मामला नहीं बनता, क्योंकि दो व्यक्तियों द्वारा कैजूअली यूं ही नारे लगाए जाने मात्र से विधिसम्मत स्थापित सरकार के विरुद्ध नफरत या असंतोष फैलाने या उसके प्रयास की ओर संलिप्त नहीं माना जा सकता।
दरअसल, औपनिवेशिक काल से शुरू हुआ यह कानून आज भी जारी है। राष्ट्रीय अपराध लेखा ब्यूरो के वर्ष 2014 के आंकड़ों के अनुसार राज्य के विरुद्ध अपराध के 512 मामले दर्ज हुए थे, जिसमें से कुल 47 मामले धारा 124 में दर्ज हुए हैं। इन 47 मामलों में से 18 मामले झारखंड, 16 बिहार, 5 केरल तथा ओडिशा, पश्चिम बंगाल में एक-एक मामला दर्ज हुआ है।
आैपनिवेशिक काल में वर्ष 1860 में भारतीय दंड संहिता लागू की गई। राजद्रोह का प्रावधान वर्ष 1870 से जोड़ा गया है। इस प्रावधान के तहत सजा पाए अंग्रेजों के विरोध में चलाए गए आंदोलन के प्रमुख नेता बाल गंगाधर तिलक थे। जिन्हें कानून का दोषी मानते हुए आजीवन कारावास की सजा हुई थी। 1908 में उन्हें म्यांमार स्थित मांडला जेल में भेजा गया था।
1947 में देश की स्वतंत्रता के बाद भी कानून की किताबों में देशद्रोह का प्रावधान ज्यों का त्यों जारी है।
देशद्रोह कानून के संदर्भ में विधि आयोग ने इस धारा के दायरे में वृद्धि कर सजा को अधिकतम 7 वर्ष करने की सिफारिश की है।
पूनम कौशिक (हाईकोर्टअधिवक्ता), दिल्ली
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: अमर उजाला समाचार
For getting Job-alerts and Education News, join our Facebook Group “EMPLOYMENT BULLETIN” by clicking HERE. Please like our Facebook Page HARSAMACHAR for other important updates from each and every field.