Monday, March 21, 2016

लाइफ मैनेजमेंट: प्रत्येक परिवार के सदस्यों में पूर्णता और खामियां होती हैं

एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
उस मल्टीप्लेक्स में मेरी सीट के सामने तीन सदस्यों का परिवार बैठा था। यह एक पूर्ण परिवार था, क्योंकि इसमें दो बच्चे थे और अपूर्ण इसलिए कि जैसा ज्यादातर भारतीय मानते हैं, इसमें बेटी और पिता नहीं थे। सिनेमा हॉल की बत्तियां बूझने के पहले दोनों बेटों के चेहरे देखकर मुझे लगा कि मां की बाईं ओर बैठा बेटा
किशोरवय का है। दाईं ओर बैठा बेटा वयस्क लग रहा था। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। मां के शरीर की मुद्रा ऐसी थी कि वह ज्यादातर दाईं ओर ज्यादा झुकी लगती थी, जिससे मैं कई तरह से विचलित हुआ। व्यावहारिक कारण तो यही था कि इससे मुझे देखने में दिक्कत रही थी। अपने विशाल व्यक्तित्व के कारण जब भी वह अपने पुत्रों की ओर दाईं या बाईं ओर झुकती तो मुझे अपनी स्थिति ठीक करनी पड़ती। मेरी खुशकिस्मती थी कि मां का झुकाव बड़े बेटे की तरफ अधिक था। इससे वह ज्यादातर समय दाईं ओर ही झुकी रहती। बड़ा बेटा ही बाहर जाकर खाने की कुछ चीजें लेकर आया। घरेलू मामलों में विचार-विमर्श की जहां तक बात थी, मां उसी से ज्यादा चर्चा कर रही थी। छोटा बेटा तो सिर्फ फिल्म शुरू होने के पहले बल्कि 'कपूर एंड सन्स' फिल्म के दौरान भी अपने मोबाइल पर व्यस्त था। फिल्म का मुख्य कथानक टॉलस्टॉय के ख्यात कोट से मिलता था, 'प्रसन्नता भरे सारे परिवार एक जैसे होते हैं, लेकिन जो दुखी होते हैं, वे सब अपने-अपने कारणों से दुखी होते हैं।' जब फवाद खान पहली बार स्क्रीन पर आए- तो उन्होंने परदे पर फिल्म देख रहे युवाओं के लिए उनकी भूमिका 'हॉट' थी और फिल्म देख रही मां के लिए उनका रोल 'परफेक्ट' था- फिल्म देख रही महिलाओं के बीच से 'ओह' की आवाज निकली, जिसने मेरे सामने बैठे बड़े बेटे को चिढ़ा दिय, जबकि छोटे बेटे की भाव-भंगिमा ऐसी थी जैसे कह रहा हो, 'हीरो भाड़ में जाए।' 
जब फिल्म का प्रवेश कपूर परिवार के चतुष्कोणीय समस्या में हुआ, जिसमें दो बेटों का व्यवहार नाटकीय रूप से एक-दूसरे के विपरीत था और पालकों के कॅरिअर के विपरीत था। मेरे सामने बैठी महिला पॉपकॉर्न के दाग वाले पेपर नेपकिन से आंखों के आंसू पोंछ रही थी, जो किसी किशोरवय बच्चे जैसी गलती थी, क्योंकि इसके कारण उसकी आंखों से मस्कारा मिट गया। मैंने इंटरवल में वे दाग लगे, तोड़-मोड़कर सीट के नीचे फेंके टिश्यू पेपर देखें, जहां शो के दौरान मेरे पैर थे। जब कपूर परिवार के सदस्यों के बीच कहा-सुनी बढ़ गई और फिल्म में सिद्धार्थ मल्होत्रा द्वारा निभाया गया 'इम्परपेक्ट' बेटा अर्जुन, पिता से झड़प के बाद बाहर चला जाता है तो महिला थोड़ी 'इम्परफेक्ट बेटे' के पास झुक गई। उसने उसके बिखरे बालों को सहलाया। जब कैमरे ने अर्जुन के अव्यवस्थित कमरे का क्लोज-अप दिखाया तो मां ने अपने इस बेटे के कान में कुछ कहा। और आखिर में जब अर्जुन अपनी मां पर जंगली तरीके से चिल्लाने लगा, क्योंकि मां ने ऐसा कुछ किया था, जो उसे करना नहीं चाहिए था, तो फिल्म देख रही मां ने अपने छोटे बेटे के सिर को खींच कर हृदय से लगा लिया। शायद फिल्म देखकर उसे लगा हो कि उसे इस बेटे को उसकी खामियों के साथ स्वीकार करना चाहिए। 
मैंने अपनी जिंदगी में पहली बार कुछ ऐसा देखा था, जैसे 'पीसा की झुकी मीनार' ने बार-बार अपने झुकने की दिशा बदल ली हो। उन 132 मिनटों में मां सिर्फ सीट में धंस-सी गई और मुझे परदा साफ नज़र आने लगा बल्कि वह दाईं तरफ वाले बेटे (परफेक्ट) बेचे की ओर झुकाव बदलकर बाएं बेटे (इम्परफेक्ट) की ओर भी झुक गई। मैं कुछ पूछने की हिम्मत तो नहीं कर सका, लेकिन मेरे दिल ने कहा कि ये वास्तविक कपूर एंड सन्स हैं, हालांकि उनका उपनाम और कुछ होगा। शो के बाद मैंने देखा कि जो लड़कियां मैंने हॉल में प्रवेश करते समय देखी थीं, वे अपने बॉय फ्रेंड के कुछ नज़दीक गई हैं। कौन जानता है कि हो सकता है उन्होंने बॉय फ्रेंड्स की खामियों को स्वीकार कर लिया हो और अब उन्हें असली जिंदगी में फवाद खान जैसे चॉकलेट बॉय की कोई जरूरत नहीं रही हो। दरअसल, जिंदगी और उसके किरदार यानी हम आप जैसे लोगों में परफेक्शन भी होता है और इम्परफेक्शन भी। इसी के मेल से जिंदगी खट्‌टी-मीठी औरखूबसूरत बनती है। 
फंडा यह है कि दुनियामें कोई भी पूर्ण नहीं होता और खुशी की बुनियाद पूर्णता यानी परफेक्शन नहीं हो सकती। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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