Sunday, March 20, 2016

लाइफ मैनेजमेंट: बदलाव का इंतजार करने की बजाय खुद बदलें

एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
राहुल अपनी कक्षा में कभी नियमित नहीं था। किंतु लड़कियों को खासतौर पर कक्षा की सबसे सुंदर लड़की अनुपमा को प्रभावित करने का उसका तरीका खेल ही था। उसके लिए जीना, सांस लेना, खाना, सोना और कक्षा में उपस्थिति सबकुछ क्रिकेट से शुरू होकर क्रिकेट पर ही खत्म होता था। यही कारण है कि जब वह कक्षा में दस्ताने (ग्लोव्स) पहनकर आया और घंटों नोट्स लिखता रहा, तो हर किसी को अजीब लगा और उसके बारे में तरह-तरह की बातें शुरू हो गईं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। कक्षा में हर विद्यार्थी फुसफुसा रहा था कि आज हमें बड़ी मजेदार चीज देखी। उस एक घंटे तक कक्षा के विद्यार्थी फुसफुसाकर जो कह रहे थे, उसका आशय था, 'ग्लोव्स पहनकर लिखकर यह जताना कि वह क्रिकेट खेलता है, बहुत ही मूर्खतापूर्ण बात है।' इन बातों की आग में घी इस बात से और पड़ रहा था कि हाल में हुए दो रणजी ट्रॉफी मैच में वह अच्छा स्कोर बनाकर किसी को प्रभावित नहीं कर पाया था। कक्षा के बाद वह बाहर आकर अपने मित्र आदर्श से मिला और उससे अकाउंट्स के नोट्स मांगे, क्योंकि परीक्षा सिर पर खड़ी थी। राहुल ने काम के नोट्स की फोटोकॉपी बनाने के बाद नोट्स लौटाने का वादा किया। 
नोट्स देते हुए आदर्श ने पूछा, 'राहुल मुझे यह तो बताओ की तुमने कक्षा में पूरे वक्त ग्लोव्स क्यों पहन रखे थे? तुम कक्षा में ग्लोव्स पहनकर आए और जब टीचर नोट्स लिखा रहे थे तब भी तुम उन्हें पहने रहे! क्या अनुपमा को प्रभावित करने के लिए तुमने ऐसा किया?' राहुल ने तत्काल खुद का बचाव करते हुए कहा, 'नहीं…नहीं वह तो वैसे भी मुझसे प्रभावित है,अब मुझे उसे और प्रभावित करने की जरूरत नहीं है।' किंतु आदर्श और राजदीप ने उसका पीछा नहीं छोड़ा वे उससे उसके पागलपन का जवाब मांगते रहे। 
राहुल ने आखिर बड़ी विनम्रता से शुरुआत कर कक्षा में क्रिकेट के ग्लोव्स पहनने का कारण बताया। राहुल ने जब यह कहा तो उसका चेहरा कुछ चमक रहा था, आदर्श तुम्हें पता है कि पिछले दो रणजी मैचों में मेरे पास पुराने ग्लोव्स थे, जो ढीले पड़ गए थे। ऐसे में जब गेंदबाज ने गेंद फेंकी तो यह मेरे ग्लोव्स के पास से गुजरी और बारीक-सी आवाज हुई। विकेटकीपर ने इसे पकड़ा, अपील की और दोनों बार मेरे बल्ले ने गेंद को छुआ भी नहीं था, लेकिन मुझे आउट करार दिया गया। तब मैंने कहा कि बहुत हुआ, ऐसा नहीं चल सकता और मैंने ये ग्लोव्स खरीदे। मैं चाहता था कि मुझे इन्हें पहनने की आदत हो जाए और जितना पसीना निकले उतना अच्छा, इसलिए अगले 48 घंटे मैं लगातार इन्हें पहने रहूंगा, क्योंकि दो दिन बाद रणजी का सेमीफाइनल मैच है। मैं चाहता हूं कि मुझे इनकी अच्छी तरह आदत हो जाए। मैं इन्हें नहीं उतारूंगा चाहे सो रहा हूं, खा रहा हूं या चाहे कक्षा में ही क्यों बैठा हूं, क्योंकि मैं अगले मैच में अच्छा प्रदर्शन करना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि मेरे हाथ उनमें पूरी तरह सहज रहे।' 
जो दोस्त क्रिकेट समझते थे उन्होंने उसके विचार की प्रशंसा की, जबकि वे जो खेल को ठीक से समझते नहीं थे, वे कक्षा में यह कहते हुए लौटे कि 'स्टाइल मारता है।' बाद में सौराष्ट्र के खिलाफ हुए रणजी सेमीफाइनल में उसने शतक बनाया। फाइनल में उस साल कर्नाटक, दिल्ली के सामने था और उसने फिर शतक बनाया और इन दो प्रदर्शनों के बूते उसे भारतीय क्रिकेट टीम में चुन लिया गया, जो इंग्लैंड के दौरे पर गई। अाश्चर्य की बात है कि इंग्लैंड के खिलाफ पहले ही टेस्ट में उसने 90 से ज्यादा रन बनाए। उसने अपनी जिंदगी की जिम्मेदारी ले ली थी। उसकी भीतरी एकाग्रता और संयम बहुत अच्छा था। उसने अंपायर के फैसलों जैसी बाहरी परिस्थितियों को दोष नहीं दिया। उसने खुद को बदलने का निर्णय लिया और अपने सर्वश्रेष्ठ प्रयास किए। वह राहुल और कोई नहीं, राहुल द्रविड़ थे। 
फंडा यह है कि यदिआप परिस्थितियां बदलने का इंतजार करके खुद को बदलें और आगे बढ़ें तो जीत के, कामयाबी के बेहतर अवसर होते हैं। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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