Sunday, April 16, 2017

Management: भावनाओं से काम का स्तर प्रभावित होता है

मैनेजमेंट फंडा (एन. रघुरामन)
वह चौथी कक्षा में पढ़ने वाले किसी भी बच्चे की तरह घर में दिए जाने वाले भोजन को लेकर कड़ी पसंद-नापसंद वाला बालक था। उसे पसंद आने वाले कई चीजें थीं लेकिन, उस सूची में से शेष चीजें तो वह मां की मनुहार के
बाद खा लेता लेकिन, कितना ही मनाओ 'लौकी की सब्जी' खाने को तैयार नहीं होता। पसंद-नापसंद को लेकर इतने पक्के रुझान वाला प्रणव सिंघी वर्ष 2000 में इंदौर के सत्य सांई स्कूल से मुंबई ट्रांसफर हो गया। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। किसी भी अन्य बच्चे की तरह उसे भी नए वातावरण में ढलने में वक्त लगा लेकिन, वहां लंच में जो खाने को दिया जाता उससे उसने खुद को जल्दी ही एडजस्ट कर लिया, क्योंकि सत्य सांई और चोइथराम स्कूल विद्यार्थियों के लिए 5-कोर्स लंच लागू करने वाले पहले दो स्कूल थे। उसकी मां निर्मला सिंघी को यह बात समझ में नहीं आई कि उनका बेटा सिर्फ स्कूल के लंच में परोसी गई 'लौकी की सब्जी' खाने लगा बल्कि वह मां की पाक कला की भी आलोचना करने लगा खासतौर पर उनके द्वारा पकाई 'लौकी की सब्जी' की। संयोग की बात कि स्कूल में उसे सबसे नापसंद पर अब पसंदीदा हो चुकी लौकी की सब्जी हफ्ते में एक बार तो बनाई ही जाती। वह लंच लेते समय कई बार सब्जी मांगता लेकिन, वही सब्जी वह तब खाने से इनकार कर देता जब निर्मलाजी उसे घर पर बनातीं। 
निर्मलाजी में मौजूद मां इस पहली का जवाब जानना चाहती थी। वे एक दिन तब स्कूल के डायरेक्टर वीरेंद्र गोयल के कैबिन में पहुंचीं। गोयल ने उन्हें खाना पकाने की आठ घंटे की प्रक्रिया का प्रत्यक्षदर्शी बनने के लिए उसी तरह आमंत्रित किया जैसे तिरुपति तिरुमाला देवस्थानम की बड़ी हुंडी में मिले चंदे की गिनती में तीर्थयात्री प्रत्यक्षदर्शी बनते हैं। और निर्मलाजी अगले दिन स्कूल किचन में रेसिपी का रहस्य जानने पहुंच गईं खासतौर पर वह रेसिपी जो लौकी की सब्जी बनाने में इस्तेमाल होती थी। उन्होंने पूरे ध्यान से सब्जी में इस्तेमाल चीजें देखीं, कच्ची सब्जी देखी, काटने की प्रक्रिया पर गौर किया यानी कुल-मिलाकर सब्जी बनाने की पूरी प्रक्रिया को एकाग्रता से देखा। उन्होंने पाया कि जिस तरह वे बनाती हैं उसकी तुलना में यह कोई महान प्रक्रिया नहीं है। फिर उनके बेटे को स्कूल की सब्जी बहुत अच्छी लगती थी। 
उलझन तो और बढ़ गई। वे गोयल के पास पहुंचीं कि वे ही यह पहेली सुलझाएं। उन्होंने निर्मलाजी से किचन स्टाफ को सुबह दिए गए निर्देश याद करने को कहा। हर दिन गोयल और उनके सहयोगी किचन की स्वच्छता के मानकों को सुनिश्चित करते जैसे स्टाफ के साफ-सुथरे नाखून, शेव किया चेहरा और स्वच्छ कपड़े। इसके अलावा वे प्रत्येक स्टाफ के चेहरे को पढ़ते और जो कर्मचारी किसी वजह से नाखुश दिखाई देते उन्हें खाना पकाने की बजाय कुछ और काम दे दिया जाता। उनका भरोसा था कि कुक दुखी हो तो श्रेष्ठतम सामग्री के बावजूद वह भोजन में स्वाद नहीं ला सकता। किचन स्टाफ को संबोधित करने हुए वह कहते, 'भोजन भोग है और हमारे ग्राहक 'बाल गोपाल' यानी बच्चे तो भगवान हैं, इसलिए आपकी भावनाओं में आस्था के अलावा कुछ नहीं होना चाहिए। उस दिन निर्मलाजी में मौजूद मां ने यह सबक लिया कि कैसे भावनाएं व्यंजन का स्वाद बदल देती हैं। आज इंदौर में एड एजेंसी चलाने वाले प्रणव मोबाइल एंटरटेनमेंट एप 'झीपी' भी चलाते हैं और अब उन्हें घर में भी लौकी की सब्जी पसंद है। 
आप जानते हैं कि क्यों कुछ जगहों की डिश इतनी स्वादिष्ट होती है जैसे अमृतसर के 101 साल पुराने केसर के ढाबा में 'काली दाल का स्वाद,' जहां कल की दाल में से एक चम्मच दाल आज पकाई जाने वाली दाल में मिलाई जाती है? अथवा इंदौर के श्रीमाया में प्रसिद्ध बटर खिचड़ी या कोलकाता में केसी दास का रसगुल्ला और भी ऐसे बहुत से मशहूर व्यंजन हैं? उनका स्वाद इसलिए अच्छा है, क्योंकि वहां के मालिकों का पक्का विश्वास है कि व्यंजनों पर भावनाओं का असर होता है और इसलिए बनाने वाला स्टाफ प्रसन्न होना चाहिए। 
फंडा यह है कि भावनाओंका आपके काम पर असर होता है, कम से कम कुकिंग के दौरान बनने वाले भोजन पर तो निश्चित रूप से होता है। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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