Tuesday, May 24, 2016

प्रकृति के पास हर समस्या का है समाधान: बस लालच रहित भरोसा रखो उस पर

एन रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
स्थान: बेलोरा, महाराष्ट्र के अमरावती जिले का गांव; समय: 1985
उन बरसों में जब देश के ज्यादातर किसान उपज घटने की शिकायत कर रहे थे, एक 36 वर्षीय किसान ऐसा भी था, जिसके पास कृषि में बीएससी की डिग्री थी और जो परेशान नहीं था। उसे जिज्ञासा जरूर थी कि जमीन में इस परिवर्तन की वजह क्या है। 1972 में डिग्री से लैस इस युवक ने खेती में कीटनाटक उर्वरकों का प्रयोग कर आधुनिक तकनीक का प्रयोग किया। इससे 1985 तक तो उसे बंपर फसल प्राप्त हुई, लेकिन फिर उपज काफी घट गई। फिर वह तीन वर्षों तक रिसर्च करने पर मजबूर हुए। मुनाफा भी काफी घट गया था। 
अपनी रिसर्च से उसने निष्कर्ष निकाला कि रसायनों से की जा रही खेती इसकी दोषी है, जिसके कारण मिट्‌टी की उर्वरता घट जाती है। इस खेती से मिलने वाले फल सब्जियां खाने वालों को दीर्घकालीन स्वास्थ्य समस्याएं भुगतनी पड़ती है, वह अलग। रासायनिक खेती के हानिकारण प्रभावों से उसे धक्का लगा और वह कम नुकसानदायक विकल्प की खोज में लग गया। उसे जंगलों में ऐसे विशाल वृक्ष नज़र आए, जिन पर असंख्य फल लगे थे, जबकि उन पर तो उर्वरक और कीटनाशक डाला जा रहा था। उसे अहसास हुआ कि पेड़ रासायनिक मदद के बिना भी अच्छी तरह उग सकते हैं। फिर उसे पता लगा कि पौधे अपने जरूरत के सिर्फ 1.5 से 2 फीसदी पोषक तत्व ही मिट्‌टी से हासिल करते हैं, शेष तो वे हवा पानी से अवशोषित करते हैं। उसने सोचा कि जब पौधों को 98 फीसदी पोषक तत्व मिट्‌टी से मिल ही नहीं रहे हैं तो उर्वरकों के इस्तेमाल में बहुत ज्यादा बुद्धिमानी नहीं है। जंगल में बहुत सारे सूक्ष्म जीवी होते हैं, जो कच्चे पोषक तत्वों को आसानी से पचने वाले स्वरूप में बदल देते हैं। खेत पर पहले तो जहरीले रसायनिक उर्वरक और कीटनाशक उन्हें नष्ट कर देते हैं और फिर ट्रैक्टर से खेत जोतना भी इनके लिए घातक सिद्ध होता है। पूरे सिस्टम पर सावधानीपूर्वक शोध करने के बाद, उसने अपने खेत पर वह तकनीक आजमाने का निश्चय किया, जो उसने प्रकृति में देखी थी। 
1989 से 1995 तक छह साल तक उन्होंने विभिन्न तकनीकों पर प्रयोग किया, उनके कारगर होने का परीक्षण किया। तब जाकर वे एक नई ठोस तकनीक का विकास कर पाए। सुभाष पालेकर से मिलिए, जिनका जीरो बजट नेचरल बजट फार्मिंग मॉडल सिर्फ देशभर में अपनाया जा रहा है बल्कि कई मुख्यमंत्रियों ने उसे कहा है कि वे महीने में कम से कम 10 दिन उनके राज्य में गुजारें ताकि यह तकनीक स्थानीय किसानों को सिखाई जा सके। जैसाकि नाम से ही पता चलता है कि इस विधि में पौधों को उगाने और उपज लेने का खर्च कुछ भी नहीं है। यानी किसानों को पौधों के स्वस्थ विकास के लिए उर्वरक और कीटनाशक खरीदने की जरूरत नहीं है। उनके लिए तो गाय के गोबर का इस्तेमाल ही काफी है। 
मिट्‌टी की उर्वरता और पोषक तत्व बढ़ाने के लिए स्थानीय गायों के गोबर का इस्तेमाल चमत्कारी सिद्ध हुआ। समझा जाता है कि एक ग्राम गोबर में 300 से 500 करोड़ सूक्ष्म जीवी होते हैं, जो फसल के लिए बहुत उपयोगी हैं। ये सूक्ष्मजीवी मिट्‌टी पर पड़े सूखे बायोमास को पौधों के लिए सीधे उपयोग में लाए जा सकने वाले पोषक तत्वों में बदल देते हैं। अपनी रिसर्च में सुभाष ने पाया कि एक एकड़ भूमि को प्रतिमाह स्थानीय गाय के 10 किलो गोबर की जरूरत होती है। चूंकि औसतन एक गाय दिन में 11 किलो गोबर देती है, एक गाय से 30 एकड़ भूमि को उर्वरक दी जा सकती है। किसान गोमूत्र, गुड़ और आटे का प्रयोग सहायक के रूप में कर सकते हैं। देश में 40 लाख से ज्यादा किसान सुभाष के सिद्धांतों को अमल में ला रहे हैं। उन्हें इस साल पद्‌मश्री सम्मान से अलंकृत किया गया है। वे महीने में 20 से 25 दिन सेमीनार आयोजित करने, मैदानी मुआयना करने और कार्यशालाओं में व्यतित करते हैं। आंध्रप्रदेश और केरल के मुख्यमंत्रियों ने स्वस्थ खेती में उनसे मदद मांगी है। 
फंडा यह है कि प्रकृतिके पास हर चीज का समाधान है और इससे सर्वश्रेष्ठ उपाय प्राप्त करने के लिए लोभ-लालच रहित भरोसा होना चाहिए। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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