Friday, May 27, 2016

कड़वा सच: 'पोषण' ने किया सरकारी स्कूलों में शिक्षा को 'कुपोषित'

सतीश चौहान
पिछले डेढ़ दशक में सरकारी स्कूलों में शिक्षा का बंटाधार जितना हुआ है उतना शायद ही कभी हुआ हो। शिक्षा विभाग ने सरकारी स्कूलों के बच्चों के लिए कभी पोषण के लिए मिड-डे-मील शुरू किया तो कभी विद्यार्थियों को आठवीं तक फेल न करने का फरमान सुना दिया। जिसके कारण सरकारी स्कूल अब विद्या के घर नहीं बचे
बल्कि वहां छात्र दोपहर का खाना खाने आते और शिक्षक उनके पोषण का ख्याल रखने के लिए रह गए। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। ऐसे में सरकार व शिक्षा विभाग को पता ही नहीं चला कि कब प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा कुपोषित हो गई। आज प्रदेश में सरकारी स्कूल निजी स्कूलों के मुकाबले फिसड्डी साबित हो रहे हैं। पिछले एक-डेढ़ दशक में शिक्षा विभाग ने गलतियों का अंबार लगाया है। शिक्षा के क्षेत्र में न तो कभी प्रदेश सरकार के मंत्रियों और अधिकारियों ने रुचि दिखाई और न ही प्रदेश शिक्षा विभाग अपनी मन-मानी से पीछे हटा। जैसा जिसके दिमाग में आया उसने वही योजना लागू कर दी। प्रदेश में सबसे पहले सरकार ने बच्चों के कुपोषण को दूर करने के लिए सरकारी अस्पतालों का नहीं बल्कि स्कूलों को चुना।
स्कूलों में बच्चों को पहले सुखा अनाज और फिर बना बनाया खाना दिया जाने लगा। पहले ही प्रदेश में स्कूलों में छह से साढ़े छह घंटे तक काम होता है और उसमें से शिक्षक का समय खाना-बनाने और फिर उसे बच्चों को खिलाने में लग गया। ऐसे में शिक्षक बच्चों को खाना परोसे या फिर उन्हें ज्ञान दे, शिक्षा दुविधा में ही रहे। शिक्षा विभाग यहीं नहीं रुका बल्कि फिर कौआ चला हंस की चाल, अपनी चाल भी भूल गया कि नीति अपनाते हुए पता नहीं कहां से आठवीं तक बच्चों को फेल न करने का फरमान जारी हो गया। बोर्ड समाप्त कर दिया और बच्चे आजाद हो गए। वहीं ज्ञान केवल शिक्षक ही नहीं देते, बल्कि स्कूलों में अच्छे सहपाठी भी बहुत कुछ सिखा जाते हैं, लेकिन सरकार की योजनाओं के बाद मध्यमवर्गीय परिवारों ने अपने बच्चे सरकारी स्कूलों से निजी स्कूलों में भेज दिए। ऐसे में अब सरकारी स्कूलों में केवल उन गरीबों के बच्चे ही जाते हैं जो स्कूलों में अपने बच्चों को खाना-खाने के लिए भेज देते हैं। उनका न तो अपने बच्चों की ओर खास ध्यान है और न ही वे शिक्षा को इतना जरूरी मानते हैं। शिक्षकों की भर्ती हो पाती है और न ही बच्चों को गुरुजी मिल पाते हैं। प्रदेश में जेबीटी अध्यापकों को मामला सबसे बड़ा उदाहरण है।
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साभारजागरण समाचार 
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