Thursday, May 26, 2016

लाइफ मैनेजमेंट: संघर्ष करने वाले योद्धाओं से प्यार करती है ज़िन्दगी

एन रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
स्टोरी 1: वह छोटे आदिवासी किसान परिवार की छह कन्याओं में चौथी बेटी थी। रांची से 26 किलोमीटर दूर ओरमांजी के कोईलारी का है यह परिवार। इतनी दूरी शहर और इन आदिवासी बच्चों में असमानता निर्मित करने के लिए काफी है। छह वर्ष पहले वह 11 साल की उम्र में स्कूल की पढ़ाई छोड़ चुकी थी। जीवन में कोई लक्ष्य
भी नहीं था। उसे तो स्कूल जाना पसंद था और घर का काम करना। वह अन्य बच्चों के साथ इधर-उधर भटकती रहती थी। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। किंतु 16 मई 2016 को वह न्यूयॉर्क स्थित संगठन 'वीमैन डिलिवर' की वैश्विक कॉन्फ्रेंस में वक्ता थी। यह संगठन महिलाओं बच्चियों के स्वास्थ्य, अधिकारों और कल्याण के लिए काम करता है और वह भी कोपेनहैगन में। वह मेलिंडा गेट्स और जॉर्डन की राजकुमारी सराह जेइद जैसे कई वक्ताओं के साथ बैठी थी। सामाजिक संगठन 'युवा' की कैडेट 17 वर्षीय सुनीता कुमारी 5 हजार लोगों के सामने इंग्लिश में भाषण देने के बाद मंगलवार को लौट आई। एक दशक पहले अमेरिकी नागरिक फ्रेंज गैस्टलर ने फुटबॉल के जरिये ग्रामीण बच्चियों को सशक्त बनाने के लिए 'युवा' की स्थापना की थी। सुनीता ने अपने भावुकता भरे भाषण में बताया कि झारखंड की साधारण आदिवासी बच्ची के लिए स्निकर्स पहनकर, तिरस्कारपूर्ण हंसी का सामना करके फुटबॉल खेलने का क्या मतलब है। इसके पहले सुनीता युवा की उस टीम की सदस्य बनकर चर्चा में आई थी, जिसने 2013 में स्पेन के अंडर-14 गस्ताइज़ कप फुटबॉल में कांस्य पदक जीता था। फुटबॉल ने उनकी जिंदगी बदल दी। 2010 में उनकी बड़ी बहनों ने जब यह सुना कि स्थानीय लड़कियां फुटबॉल खेल रही हैं तो उन्होंने भी सुनीता को 'युवा' की सदस्य बनने की प्रेरणा दी। इस खेल ने उसे अंग्रेजी सीखने पढ़ाई में रुचि लेने को प्रेरित किया और विदेश यात्रा में मदद की। इससे उसकी जिंदगी में 360 डिग्री का बदलाव गया। आजकल, सुनीता सिर्फ फुटबॉल की प्रैक्टिस करती है बल्कि जूनियर युवा कैडेट्स को फुटबॉल की कोचिंग भी देती है। इससे उसे कुछ पैसा मिल जाता है, जो छोटी बहनों की पढ़ाई पर खर्च होता है। दो साल पहले शुरू किए गए युवा स्कूल में वह नौंवी की छात्रा भी है। 
स्टोरी 2: वर्ष 2010 में उसका सब कुछ ठीक चल रहा था। अमृतसर का यह प्रखर प्रतिभाशाली बालक खेल में भी बहुत रुचि रखता था। हमेशा से वह पढ़ाई के क्षेत्र में आगे जाना चाहता था। 2011 में उसने इंजीनियरिंग की गेट परीक्षा दी और अखिल भारतीय स्तर पर 7 की रैंकिंग हासिल की। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। 
किंतु भाग्य में कुछ और ही लिखा था। अब 27 वर्ष की उम्र में वह कार दुर्घटना में सिर्फ परिवार खो चुका है बल्कि रीढ़ की हड्‌डी में चोट से गर्दन के नीचे का पूरा शरीर लकवे की चपेट में गया है, लेकिन आईआईटी वाराणसी से बीटेक करने वाला यह छात्र इससे हताश नहीं हुआ है। दो साल के पुनर्वास कार्यक्रम के बाद 2013 में उसने गुड़गाव में एक रीयल एस्टेट कंपनी ज्वाइन की है और इस साल कैट परीक्षा में बैठने की अपने आकांक्षा जीवित रखी है। दो महीने तक उसने तैयारी की। काम के दिनों में वह 2-3 घंटे पढ़ता और सप्ताहांत की छुटि्टयों में 5-6 घंटे। दिव्य पाराशर, इंडियन स्पाइनल इंजुुुरीज सेंटर के क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट ने उसके जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, बेंगलुरू में मंगलवार को प्रवेश लेने वाले जसकरण सिंह से मिलिए। उन्होंने प्रवेश परीक्षा में 99.04 फीसदी अंक हासिल किए। यहां आने का चुनाव उन्होंने इसलिए किया कि 2011 में परिसर में ऑफिस ऑफ डिसएबिलिटी सर्विसेट (ओडीएस) की स्थापना की गई थी, जो देशभर के दिव्यांग, लेकिन प्रखर बुद्धि के युवाओं के लिए आकर्षण का केंद्र है। उनकी खेल भावना भी उतनी ही प्रखर है, जितनी पढ़ने की ललक। इसकी वजह से उन्होंने पेरा नेशनल स्पोर्ट्स मीट में पंजाब का प्रतिनिधित्व भी किया है। 
फंडा यह है कि विफल होने के बहुत से कारण हो सकते हैं, लेकिन सफल होने के लिए एक ही वजह काफी है- जीवन से संघर्ष करने की क्षमता। पुरानी उक्ति याद कीजिए, 'ईश्वर उनकी मदद करता है, जो अपनी मदद रते हैं।' 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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