Wednesday, May 25, 2016

दाखिले का अंकगणित: परीक्षा और दाखिला प्रणाली के चक्रव्यूह में उलझी शिक्षा

मृणाल पांडे (लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं और प्रसार भारती की प्रमुख रह चुकी हैं) 
अंग्रेजी के एक लेखक (जीके चेस्टरटन) के अनुसार शिक्षा ही वह माध्यम है, जिसकी मार्फत जाती हुई पीढ़ी नई पीढ़ी में अपनी आत्मा का प्रवेश करा जाती है, लेकिन भारत की मौजूदा उच्च शिक्षा प्रणाली के हाल ऐसे हैं कि पुरानी पीढ़ी की आत्मा का नई पीढ़ी में सहज अवतरण तकरीबन असंभव है। शैक्षणिक नहीं, राजनीतिक वजहों
से बार-बार तब्दील की गई नीतियों ने विश्वविद्यालयीन परिसरों को परीक्षा और दाखिला प्रणालियों के चक्रव्यूह से घेर कर सहज प्रतिभा प्रवाह और शोध कार्य के लिए अगम्य बना दिया है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। प्रवेश द्वार पर सवालों के जवाब टिक लगाकर देने से हिचकिचाते अनेक मेधावी छात्र और शोधार्थी अक्सर भीतर नहीं जा पाते, पर ट्यूशनी रटंत और/अथवा कोटा प्रणाली से आए कई मंझोले स्तर के छात्र मजे से उबर जाते हैं। नतीजतन परिसरों में कुंठा तो काफी बढ़ रही है, ज्ञान व शोध का स्तर नहीं। पिछले साल दिल्ली के कुछ जाने-माने कालेजों में गणित, कॉमर्स और अर्थशास्त्र सरीखे चहेते विषयों में दाखिला पाने की अर्हता (कट ऑफ) दर 100 प्रतिशत तक जा पहुंची थी। फिर भी बताया गया कि दाखिला खुलने के हफ्ते भर के भीतर वहां उपलब्ध सामान्य श्रेणी की सब सीटें भर गईं। इस बार भी नब्बे प्रतिशत तक अंक पाकर भी मनचाहे विषय से वंचित रहने जा रहे छात्रों की तादाद काफी रहेगी और संभव है कि कुछ टॉपर भी अपने मनचाहे विषयों में दाखिला न पा सकें।
कॉलेज सफाई देते हैं, वे मजबूर हैं। लगातार सिकुड़ती फैकल्टी के फटाफट चयन में कई तकनीकी अडं़गे हैं। परिसर तथा हॉस्टल के कमरे भी सीमित हैं। तब वे दोगुनी-तिगुनी तादाद में दाखिले कैसे करें? शीर्ष तकनीकी और मैनेजमेंट शिक्षा के परिसरों में कई महत्वपूर्ण विषय पढ़ाने को आरक्षित कोटे में व्याख्याताओं की स्थाई नियुक्तियां (विज्ञापन देकर भी समुचित आवेदक न मिलने से) नहीं हो पातीं। यह सीटें चूंकि गैर कोटा श्रेणी के तहत भरना मना है इसलिए सालों से तदर्थवादी आधार पर प्रवक्ताओं की नियुक्ति हो रही है। इससे मेधावी छात्र इच्छा होते हुए भी शिक्षण में कॅरियर बनाना असुरक्षित मानने लगे हैं और अब मांग हो रही है कि कॉलेजों में प्रवक्ताओं की नियुक्ति ही नहीं, प्रोफेसर या डीन सरीखे सीनियर पदों पर उनकी प्रोन्नति भी कोटा प्रणाली के ही आधार पर ही की जाए। इसका राजनीतिक आधार भले ही तगड़ा हो, पर व्यावहारिक रूप से यह करना शिक्षा के स्तर से खिलवाड़ साबित हो सकता है। 
यह एक दुखद सच है कि भारत में पारंपरिक रूप से उच्च शिक्षा सदियों तक सवर्णो की ही बपौती बनी रही, पर जब दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गो के युवाओं को वहां सहजता से प्रवेश दिलवाने को कोटा प्रणाली लागू की गई तो बिना ढांचे में जरूरी परिवर्तन किए। बीस साल बाद भी अधिकतर कोटा वर्ग के छात्रों का हाल देखकर महादेवी वर्मा की स्मृति के रेखाचित्र माला में उकेरा गया ‘घीसा’ याद आता है, जिसके प्रति कवियित्री गुरु के वरदहस्त ने उसको शेष सहपाठियों के बीच उपहास और अत्याचार का शिकार बना दिया था। कोटा प्रणाली लागू करने के बावजूद एक तरफ सरकारी स्कूली शिक्षा में भाषाई माध्यम और दूसरी तरफ उच्च शिक्षा के नामी केंद्रों में योग्यतम गुरुओं के चयन और ज्ञान के आदान-प्रदान का आधार अंग्रेजी का द्वैत लगातार टकराव पैदा करता है। इससे सरकारी स्कूलों में भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़कर निकले मेधावी छात्रों का भविष्य डगमगाता है। दाखिला हो भी गया तो रातोंरात उनका भारतीय भाषा का ज्ञान और भारतीय जीवन के जमीनी अनुभव हमारे उच्च शिक्षा परिसरों में व्यर्थ बन जाते हैं और उनका कोटा के तहत आगमन शेष सहपाठियों के साथ सहज पैठ और मित्रता को रोकता है। नतीजा यह कि आज परिसरों में ‘इंग्लिश मीडियम’ और ‘देसी’ टाइप्स कहे जाने वाले छात्रों के बीच एक नई तरह की सवर्ण व्यवस्था बन गई है। आरक्षित वर्ग के बच्चों में अपने समुदाय के पिछड़ेपन का बोध उनको असहज बनाता है और सवर्ण समुदाय के कई बच्चे उनसे अकारण खार खाते हैं। 
इधर अंकों के आधार पर दाखिले से वंचित संपन्न छात्रों की तादाद और अभिभावकों की महत्वाकांक्षा बढ़ने के साथ मोटी फीस के आधार पर दाखिला देने (लेकिन अक्सर विवादित गुणवत्ता वाले) वाले निजी कालेजों की बाढ़ आ गई है जहां शायद ही कोई अवर्ण या जनजातीय समुदाय का छात्र जा पाता है। खुद सवर्ण बहुल कैंपस से निकले छात्रों का इस सबकी वजह से सामान्य जीवन या गरीबों से कोई सीधा भावनात्मक या भौतिक रिश्ता नहीं बनता। पुराना जातिवाद बेशक गलत था पर आज का नव जातिवाद कितना सही या न्यायपरक है? क्या इस विषमतामूलक नव जातिवाद को पोसते रहने की वजह से उच्च शिक्षा पाकर भी हमारे युवा संकीर्ण और सामंती विचारों वाले नहीं बन रहे हैं? बहुचर्चित ‘जेन एक्स’ के कई मेधावी टॉपर बेङिाझक बताते रहते हैं कि शुद्ध ज्ञान, शोध या पठन पाठन जैसे रास्ते उनके लिए प्रशासकीय, कारपोरेट, बैंकिंग से जुड़े जॉब्स के आगे कतई ‘कूल’ नहीं। राष्ट्रहित की बजाय स्वार्थ के चश्मे से शिक्षा को तौलने वाले ऐसे छात्रों का बीबी या जॉब का चयन भी शैक्षिक क्षमता नहीं बल्कि टोटल पैकेज के आधार पर करना आम है और उतना ही आम है अधबीच पढ़ाई छोड़ने को मजबूर कई छात्रों का दबंगई के प्रदर्शन, कार चोरी या झपटमारी को मजाकिया शरारत मानना। सामाजिक दायित्वबोध का यह हाल है कि हर साल मेडिकल या आइआइटी प्रवेश परीक्षाओं में टॉप करने वाले कई छात्र साफ कहते फिरते हैं कि डॉक्टरी या इंजीनियरी में कइयों को वंचित कर पाई उनकी सीट दरअसल उनके ‘रियल’ कॅरियर की एक सीढ़ी भर है, अंतत: वे सिविल सर्विस या मनीजरी में जाएंगे। 
इस स्थिति को स्वागतयोग्य कहें या दिल तोड़ने वाली या उसे सिर्फ स्वीकार कर लें? स्वीकार करने का मतलब हुआ कि हम मान लें कि उच्च शिक्षा की दुनिया में प्रवेश कर रहे हमारी नई पीढ़ी के लिए पढ़ाई का मतलब जाति, नौकरी व धन ही होता जाएगा। बिना जरूरत भी सीट हथियाने या ज्ञान की परंपरा को लगातार आगे न बढ़ा पाने को लेकर उनमें कोई अपराध बोध नहीं होगा। हित स्वार्थ जो भी हों, यह तो मानना ही होगा कि यह सब विषमता को स्थायी बनाकर ज्ञान का सहज विकास कुंठित करना ही है और जो वह चोर दरवाजों से फर्जी डिग्रियां बांटने वाले कालेजों, नकली जाति सर्टिफिकेट बनवाने वाले बाबुओं और ट्यूटोरियल की मार्फत देश में भ्रष्टाचार करने की लाखों नई राहें भी बना रहा है सो अलग। सवाल इस या उस जातिवाद की तुलनात्मक विवेचना का नहीं, सवाल यह है कि उच्च शिक्षा की जड़ों को अगर निरुद्देश्य या किसी दलगत उद्देश्य से कमजोर किया जा रहा हो तो क्या उसे कमजोर होने दिया जाए? 
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साभारजागरण समाचार 
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