Sunday, August 27, 2017

डेरा समर्थकों द्वारा हिंसा को काबू करने खुद माननीय हाई कोर्ट आया आगे, इसके लिए बधाई का पात्र

पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के एक्टिंग चीफ जस्टिस के पास कुछ साल पहले मेडिकल कॉलेज में दाखिले का एक केस आया। कुछ बच्चों को दाखिला नहीं मिल रहा था और कॉलेज में भी आखिरी तारीख 30 सितंबर थी। अगर इस केस में कॉलेज प्रशासन को नोटिस जारी कर जवाब तलब किया जाता तो आिखरी तारीख निकल जाती। इसलिए जस्टिस सारों ने सभी को अदालत में तलब कर फैसला सुना दिया और बच्चों को दाखिला मिल गया। 
सच्चा सौदा के डेरामुखी के मामले में भी अदालत ने कुछ होने का इंतजार नहीं किया। जाट आंदोलन के दौरान हरियाणा में हुई बर्बादी जजों के जेहन में थी। पंचकूला की जिस अदालत में डेरामुखी की पेशी हुई, उसकी हाईकोर्ट से दूरी 15 किमी भी नहीं है। ये भी आशंका थी कि अगर पंचकूला में हिंसा की आग बढ़ी तो चंडीगढ़ भी झुलसेगा, भारी नुकसान होगा। हाईकोर्ट ने हरियाणा सरकार के वकील से जब धारा-144 के नोटिफिकेशन की कॉपी मांगी तो ये सामने आया कि इसमें इस बात का जिक्र तक नहीं है कि पांच या इससे ज्यादा लोगों के एक स्थान पर इकट्‌ठे होने पर रोक लगा दी गई है। वकील ने भी नहीं सोचा था कि इस तरह की गलती भी हो सकती है। करीब 15 साल से हाईकोर्ट के जस्टिस सारों ने लॉ एंड ऑर्डर के मामले में सरकार से इस तरह की चूक की उम्मीद नहीं की थी। मामले की गंभीरता और मौके की नजाकत को देखते हुए ये मामला फुल बेंच को गया और दोपहर बाद अदालत में तीसरी कुर्सी लगाई गई। अब कार्यवाहक चीफ जस्टिस एसएस सारों, जस्टिस अवनीश झिंगन और जस्टिस सूर्यकांत ने इस मामले की सुनवाई की। 
परंपरा रही कि दंगा फसाद होने के बाद अदालतों ने कोर्ट ऑफ इंक्वायरी अथवा आयोग बैठाए हैं। मामला चाहे संत रामपाल का रहा हो या जाट आंदोलन का सभी मामलों में नुकसान होने के बाद भरपाई के बारे में सोचा गया, लेकिन इस बार पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट की सोच इतिहास को दोहराने की नहीं बल्कि इतिहास को लिखने की थी। ओपन कोर्ट में जस्टिस सूर्यकांत ने कहा भी कि हम मूक दर्शक बनकर नहीं बैठेंगे। सरकार कार्रवाई नहीं करेगी तो कोर्ट कार्रवाई करवाएगी। सरकारी अफसर यह सोचे कि यह काम हमारा है और कोर्ट इसमें दखल नहीं देगा। देश में यह पहला मौका रहा जब हाईकोर्ट ने कानून प्रक्रिया की बाध्यताओं को तवज्जो देकर हथियार के इस्तेमाल तक की बात कही। हरियाणा सरकार की मंशा को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि धारा 144 लगाने की बात दो बार कोर्ट में कही गई। 18 अगस्त और 22 अगस्त को नोटिफिकेशन भी किया। कार्यवाहक चीफ जस्टिस एसएस सारों ने कहा कि एक बार नोटिफिकेशन की कॉपी तो दिखा दो पर सरकार का जवाब यही रहा कि धारा 144 लगा दी है। जस्टिस सारों ने जोर देकर जब धारा 144 की काॅपी मंगवाई और पढ़ा कि इसमें यह लिखा ही नहीं कि पांच या पांच से ज्यादा लोग एक जगह हथियार लेकर जमा नहीं हो सकते। तब हरियाणा सरकार को अपनी गलती का अहसास हुआ। कोर्ट के इस दखल के बाद हरियाणा सरकार ने 24 अगस्त को अपनी गलती को सुधारा लेकिन हाईकोर्ट ने साफ कहा अब काफी देर कर दी है, नतीजे तो भुगतने हंगे। 
पहला मौका रहा जब हाईकोर्ट ने जान माल के खतरे को भांपते हुए मजिस्ट्रेट पावर का इंतजार कर हथियार चलाने के आदेश खुद ही दे दिए। कहा कि पैरा मिलिट्री फोर्स को काम करने के लिए ओपन हैंड दिया जाए। जाट आंदोलन के समय बहुत नुकसान हुआ लेकिन इस बार लोगों की जान माल की सुरक्षा से कोई समझौता किया जाए। जस्टिस सारों ने कोर्ट में कहा कि जाट आंदोलन जैसा हाल हरियाणा में दोबारा नहीं होने देंगे।
कार्यवाहक चीफ जस्टिस एसएस सारों ने कहा 'हरियाणा सरकार के भरोसे छोड़ते तो यह आग पूरे देश में लग जाती। हर बार की तरह ट्रेन और बसें फूंकी जाती और सरकार अफसोस करके रह जाती। जाट आंदोलन जैसी गलतियां फिर से नहीं दोहराने दी जाएंगी। यह दिन कोर्ट के लिए भी नो और नेवर वाला है।' 
जस्टिस सूर्यकांत ने कहा हम मूक दर्शक बन कर नहीं बैठेंगे हरियाणा सरकार कुछ नहीं करना चाहती तो हम इसे स्वीकार नहीं करेंगे। कोर्ट के आदेश न मानकर पहले ही सरकार ने हालात बेकाबू कर दिए, अब इन्हें और नहीं बिगड़ने दिया जाएगा। जीवन यापन का अधिकार स्वतंत्रता के अधिकार से बढ़कर है। 
यह स्टोरी ज्यूडिशियरी से जुड़े सूत्रों से बातचीत पर आधारित है
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साभार: भास्कर समाचार 
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