साभार: जागरण समाचार
डेरा प्रमुख गुरमीत राम रहीम को सजा के बाद अब उसका सियासी किला भी नेस्तनाबूद हो गया है। पिछले दो दशक से उसका राजनीतिक प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा था। प्रदेश का ऐसा कोई राजनीतिक दल नहीं बचा था,
जो डेरे में नतमस्तक नहीं होता था। जिस भी राजनीतिक दल ने डेरे की अनदेखी की, उसे चुनाव में इसका खामियाजा भुगतना पड़ा था।
दो दशक के अंतराल में ऐसा पहली बार हुआ, जब किसी मुख्यमंत्री ने अपने राजनीतिक नफे-नुकसान की परवाह किए बिना डेरे के वर्चस्व को चुनौती दी। डेरा प्रमुख को बिना खून-खराबे के शांतिपूर्ण ढंग से कोर्ट में पेश करना सरकार के लिए बड़ी अग्नि परीक्षा थी। इस परीक्षा में सरकार को सफलता मिली तो साथ ही उन नेताओं को भी फायदा पहुंचा, जो न चाहकर भी चुनाव के समय डेरे में नतमस्तक होने जाते थे। अब डेरा मुखी को दस साल की सजा हो चुकी है। डेरा प्रमुख ने बाकायदा अपने यहां एक राजनीतिक विंग बना रखी थी, जिसके जरिए वह किसी भी पार्टी को जिताने और किसी भी नेता को हराने का फरमान जारी किया करता था। पिछले चुनाव में डेरा प्रमुख ने भाजपा उम्मीदवारों का खुला समर्थन किया था। उसे उम्मीद थी कि साध्वी यौन शोषण समेत विभिन्न मामलों में उसकी मदद मिल सकती है, लेकिन सरकार ने न्यायपालिका का सम्मान करने के साथ ही प्रदेश के अमन चैन को अधिक तरजीह दी है। सूत्रों के अनुसार डेरा प्रमुख कोर्ट में पेश होने के लिए तैयार नहीं था। उसे उसकी शर्तो पर पेशी के लिए तैयार किया गया। डेरा प्रमुख को जिस तरह से अब एक केस में सजा हुई और कई केस अभी चल रहे हैं, उन्हें देखकर नहीं लगता कि अब डेरे का साम्राज्य फिर से खड़ा हो पाएगा। यानी अब डेरा किसी को चुनाव में हराने या जिताने की स्थिति में उतनी पावर के साथ नहीं होगा।
डेरे का बढ़ता सियासी वर्चस्व था दलों के लिए नुकसानदेह: राजनीतिक दलों की दुविधा इस बात को लेकर बढ़ती जा रही थी कि डेरा लगातार राजनीतिक रूप से स्ट्रांग हो रहा है। खुफिया रिपोर्ट के मुताबिक डेरा प्रमुख अब अपनी पसंद के उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारने की सोचने लगा था। उसका इरादा अपनी खुद की पार्टी तक बना लेने का था। डेरे की राजनीतिक विंग अस्थायी तौर पर पार्टी के रूप में ही काम कर रही थी। अगर इसे पनपने का मौका मिलता तो डेरा मुखी का बढ़ता राजनीतिक वर्चस्व सियासी दलों के लिए नुकसानदायक साबित होता।