एन. रघुरामन (मैनेजमेंटगुरु)
एक बात मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि मुंबई में 1956 से 2017 के बीच कुछ भी नहीं बदला है। जलमग्न हो जाना मुंबईकर के लिए कोई नई बात नहीं है। प्रकृति के इस प्रकोप काे मैं अपने जीवनकाल में 20 से अधिक बार सह चुका हूं। सबसे बुरे हालात 26 जुलाई 2005 को बने थे, तब शहर 400 मौतों का गवाह बना था। मुंबईकर आमतौर पर ऐसी बातों की परवाह नहीं करता, लेकिन 26/7 की यादों ने उन्हें इस बार बेचैन कर दिया। वे अपने साथी मुंबईकरों की मदद के लिए तैयार दिखे। अाने-जाने वाले और बाहरी आबादी परेशान हो गई, पर नियमित मुंबईकर जानते थे कि कैसे घुटने तक पानी में लोगों की मदद की जाती है। मंगलवार को मुंबई 315 एमएम पानी में डूबी थी, लेकिन मुंबईकरों ने वही किया जिसकी उन्हें आदत है- देना।
शहर की लाइफ लाइन उपनगरीय ट्रेनें बंद हो गईं। सड़कों पर पानी भर गया। अस्पतालाें तक में पानी भर गया और लोगों को कमर तक पानी का सामना करना पड़ा लेकिन, लोगों ने अपने दिल और घरों के दरवाजे यहां-वहां फंसे लोगों के लिए खोल दिए। अपने टॉयलेट इस्तेमाल करने की इजाजत दी और गर्म चाय लोगों को पिलाई। न्यायालयों में कोर्ट रूम लोगों के ठहरने के लिए खोल दिए गए। रेलवे स्टेशनों ने अनाज के अाखिरी दाने तक लोगों को फूड सर्व किया। यहां तक कि कोई चार्ज भी नहीं लिया। यह भी नई बात थी। मंदिरों, गुरुद्वारों और मस्जिदों के दरवाजे सभी के आश्रय के लिए खोल दिए गए।
इस बार तो सोशल मीडिया ने भी मुंबईकर के हाथों को मजबूत किया। नई पीढ़ी ने उन लोगों को जोड़ा, जिन्हें मदद की जरूरत थी और जो मदद के लिए तैयार थे। इसके लिए मुंबईरेंस डॉट ओआरजी और रेनहोस्ट सहित कई हैशटैग चलते रहे। इन्होंने कई दुखद कहानियों को यादगार अनुभवों में बदल दिया। लोअर परेल के बॉम्बे कैंटीन नाम के रेस्तरां में किचन बंद कर दिया गया था, क्योंकि खाने पीने का सारा सामान खत्म हो गया था, लेकिन फिर भी रेस्तरां सभी लोगों की शरणस्थली के रूप में खुला रखा गया। इस क्षेत्र में शहर के अधिकतर अस्पताल स्थित हैं। यहां लोगों को चाय और कॉफी सर्व की जाती रही। उन्होंने ट्वीट भी किया कि गर्म पेय के लिए रेस्तरां खुला है। वो भी फ्री।
इसने मुझे 1956 की एक कहानी की याद दिला दी। हमारे परिवार के सबसे बुजुर्ग अंकल बॉम्बे आए थे, जो अब मुंबई है। वे नौकरी की तलाश में आए थे और दिन में तीनों समय थिरुशुर मैस में नाश्ता-भोजन करते थे, क्योंकि वहां पूरे दिन के भोजन की कीमत मात्र 56 रुपए थी। इसका भी एक यूनिक पॉइंट यह था कि यहां आने वाले 70 प्रतिशत युवा जॉबलेस थे और नौकरी की तलाश में थे। उन्हें अपने भोजन के लिए एक भी पैसा चुकाने की जरूरत नहीं थी, लेकिन शर्त एक ही थी कि जैसे ही उन्हें जॉब मिलेगा उन्हें पैसा चुकाना होगा, जितनी किस्तों में वे चाहें उतनी में। यह शहर के लोगों की मदद का अनोखा तरीका था, जो इसके तब के मालिक रामास्वामी ने अपनाया था। जब मेरे अंकल ने उनसे पूछा कि वे कैसे इन सैकड़ों बेरोजगारों पर नज़र रखते हैं तो रामास्वामी ने कहा कि कैश काउंटर के ऊपर जो भगवान गणेशजी हैं, वे ही हिसाब रखते हैं, अगर लोग पैसा नहीं चुकाते हैं तो वे उन्हें अपराधबोध का अहसास कराते हैं। मैं तो नियमित रूप से भोजन करने वाले कई लोगों का नाम तक नहीं जानता, लेकिन अधिकतर धोखा नहीं देते। अगर कोई देता भी है तो भी क्या, मैंने तो भूखे को खाना ही खिलाया है! काेई आश्चर्य नहीं कि मुसीबतों के बाद आज भी मुंबई अमीर है।
फंडा यह है कि कोई भी शहर इसके नागरिकों के कार्यों से अमीर बनता है, उन पैसों से नहीं जो वे कमाते हैं।