साभार: भास्कर समाचार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' के 35वें एपिसोड कहा कि एक जमाना था जब मां बेटे कहती थी कि बेटा खेलकर घर वापस कब आओगे। और एक आज का जमाना है जब मां बेटे से कहती है कि बेटा खेलने के लिए घर
से कब जाओगे। निश्चित ही बदलते तकनीकी दौर में आज की पीढ़ी का मैदान के खेलों के प्रति अरुचि और मोहभंग होता जा रहा है, जिसको किसी भी हालत में अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसको लेकर प्रधानमंत्री मोदी की चिंता वाजिब है। मैदान के खेलों का महत्व कम होने का एक कारण तो इलेक्ट्रॉनिक उपकरण (स्मार्ट फोन, मोबाइल, लेपटॉप) इत्यादि के प्रचलन में तीव्रगामी परिवर्तन आना है। आज खेल तो खेले जा रहे है लेकिन, केवल मोबाइल और कम्प्यूटर के स्क्रीन पर। दिन-रात बच्चें से लेकर जवान और जवान से लेकर बूढ़े तक सभी कम्प्यूटर के खेल खेलने में मशगूल है। अधिक समय तक अधिक रोशनी वाले उपकरण पर दिमाग खपाने से आंखों की रोशनी पर विपरीत प्रभाव पड़ता जा रहा है। मैदान के खेलों का क्रेज खत्म होने का दूसरा कारण मैदानों की निरंतर कमी होना है। भौतिकवादी सुविधाओं के मोह में मैदानों की जगह दस-बारह मंजिल की अट्टालिकाओं का निर्माण किया जाने लगा है। तीसरा कारण यह भी है कि हमारे समाज में अक्सर बड़े-बुजुर्गो के मुंह से कहावत सुनने को मिलती है कि 'खेलोगे कूदोगे तो बनोगे खराब और पढोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब' बच्चों को केवल किताबों तक ही संकुचित करती है। चौथा कारण है अभिभावक के पास समय का अभाव होना। ऐसे में आज के मासूमों को कौन बचपन के खेल (लुका छिपी, लगंड़ी, कबड्डी, खो-खो) इत्यादि के बारे में बताएगा ?
अगर समय रहते हम बाल मनोविज्ञान को लेकर सचेत नहीं हुए तो ब्लू व्हेल नामक खूनी खेल हमारे देश के नौनिहालों की जान के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे। आज जरूरत है कि मैदान के खेलों के प्रति बाल और युवा पीढ़ी का ध्यान आकर्षित किया जाए। उन्हें बताया जाएं कि मोबाइल और कम्प्यूटर पर क्रिकेट खेलने से कई अधिक मजा मैदान में जाकर क्रिकेट खेलने से है।