आर.जगन्नाथन (आर्थिक मामलों के वरिष्ठ पत्रकार, 'डीएनए' के पूर्व एडिटर)
दो साल पहले मुंबई के पास ठाणे में मेरे एक पड़ोसी अपना दो कमरों का फ्लैट बेचना चाहते थे। उनका मानना था कि फ्लैट का बाजार में मूल्य 1.1 करोड़ रुपए होगा। लगभग 30-40 लोग फ्लैट देखने भी आए। लेकिन किसी
ने खरीदा नहीं। यह उस समय हुआ जब इसी इलाके में बिल्डर्स नई प्रॉपर्टी बनाकर 1.5 से 1.6 करोड़ रुपए में बेच रहे थे। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। मेरे एक और परिचित के साथ दूसरी तरह का अनुभव देखने को मिला। उन्होंने इसी कॉम्प्लेक्स में 67 लाख रुपए में एक बेडरूम का फ्लैट खरीदा था। स्टाम्प ड्यूटी और रजिस्ट्रेशन चार्ज समेत रंग-रोगन कराने पर उन्होंने चार लाख रुपए और खर्च किए थे। यह फ्लैट उन्हें 71 लाख रुपए में पड़ा था। लेकिन तीन साल बाद उन्होंने इसे 70 लाख रुपए में बेचने का फैसला किया। बमुश्किल, एक खरीदार उन्हें 66 लाख रुपए देने को तैयार हुआ। ब्रोकर ने उन्हें बेहतर कीमत के लिए कुछ और समय ठहरने की की सलाह भी दी। लेकिन उन्होंने पांच लाख रुपए के नुकसान के साथ अपना फ्लैट 66 लाख में बेचने का फैसला किया। वहीं, पहले पड़ोसी ने जब पाया कि 1.1 करोड़ रुपए कीमत पर कोई खरीदार सामने नहीं आया तो उन्होंने कीमत घटाकर एक करोड़ रुपए कर दी। इस बीच, उसी सोसाइटी में दो और लोगों ने अपने-अपने फ्लैट बेचने का फैसला लिया। और इससे फ्लैट की सप्लाई अचानक बढ़ गई। अब हालत यह थी कि कीमत घटाने के बावजूद उन्हें फिर कोई खरीदार नहीं मिल पाया। अब सवाल यह उठता है कि आखिर इन दोनों में सही कौन है? एक वह जो फ्लैट बेचकर इंतजार करने का फैसला करता है या दूसरा वह जो अपना फ्लैट नुकसान में बेच देता है? काफी कुछ इस पर निर्भर करता है कि भविष्य में कीमतें कैसा रुख करेंगी। फिर भी दो मनोवैज्ञानिक भ्रांतियां और एक आर्थिक वास्तविकता ऐसी हैं जिन्हें सभी प्रॉपर्टी खरीदने वालों और बेचने वालों को अच्छी तरह समझने की जरूरत है। ये दो मनोवैज्ञानिक कारक हैं- 'एंकरिंग इफेक्ट' और 'लॉस अवर्शन', जो हमारे फैसलों को प्रभावित करते हैं। वहीं, तीसरा आर्थिक कारक 'टाइम वैल्यू ऑफ मनी' है।
'एंकरिंग इफेक्ट' को समझना बहुत आसान है। जब हम प्रॉपर्टी के मूल्य के बारे में पहली बार विचार करते हैं तभी हम गलत धारणा बना लेते हैं। जब आपको पता चलता है कि फलां व्यक्ति ने 1.1 करोड़ रुपए में अपना फ्लैट बेचा है, तो मानना शुरू कर देते हैं कि यही वह न्यूनतम कीमत है जिसे आप स्वीकार कर सकते हैं। बाजार में हालात क्या हैं, इस पर ध्यान नहीं देते। आप एक-दो लाख रुपए तक डिस्काउंट दे सकते हैं, लेकिन 15 से 20 फीसदी से ज्यादा नहीं। इसके बावजूद कोई खरीदार नहीं मिलता है। पहले उदाहरण वाले पड़ोसी के साथ ठीक यही स्थिति थी और उन्होंने दो साल और फ्लैट नहीं बेचने का फैसला किया।
वहीं, 'लॉस अवर्शन', किसी भी काम में नुकसान से बचने का मानव स्वभाव है। मस्तिष्क पर रिसर्च करने वाले एमोस वर्सकी और डैनियल कानमन ने हैप्पीनेस के संदर्भ में एक रिसर्च किया। उन्होंने पाया कि लोगों को 100 रुपए के नुकसान का दु:ख, उन लोगों से ज्यादा होता है जिन्हें 100 रुपए का फायदा होता है। मतलब यह कि छोटे से नुकसान को देखते हुए संभव है अपना फ्लैट बेचें। जबकि हो सकता है फ्लैट बेचने से जो पैसा मिले, वह उस नुकसान से अधिक हो। दूसरे उदाहरण वाले परिचित के साथ ठीक यही स्थिति बनी। उन्होंने नुकसान के बावजूद अपना घर बेच दिया। अब वह अनलॉक हुए इस पैसे को शेयरों में लगा सकते थे या बैंक में डिपॉजिट कर सकते थे। इससे एक साल में उस नुकसान से ज्यादा कमा सकते थे जो उन्हें फ्लैट को बेचने से होता।
अब तीसरे आर्थिक कारक, 'टाइम वैल्यू ऑफ मनी' की बात करते हैं। यदि आप बिना जोखिम उठाए मान लें 10 फीसदी रिटर्न का लक्ष्य लेकर चलते हैं तो आप जिस कीमत पर फ्लैट बेचना चाहते हैं तो उसे पाने के लिए आपको एक या दो साल इंतजार करना पड़ेगा, जो वास्तव में आपके पैसे का नुकसान होगा। मसलन, पहले उदाहरण वाले पड़ोसी को दो साल इंतजार करने में रिटर्न के संदर्भ में 20 फीसदी से ज्यादा नुकसान हुआ। इस बीच फ्लैट की कीमत गिरी। इससे उनका नुकसान और बढ़ गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पैसे की कीमत समय से भी तय होती है। यदि आज पैसा आपके हाथ में हो, तो इससे एक-दो साल में आप और ैसा कमा सकते हैं। आज जो फ्लैट आपके हाथ में है, यदि कीमतें गिरीं तो, आपको ज्यादा नुकसान होगा। इस तरह, ये तीन तरह की वास्तविकताएं हैं जिन्हें प्रॉपर्टी खरीदने और बेचने वाले सभी लोगों को ध्यान रखने की जरूरत है।
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साभार: भास्कर समाचार
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