एन. रघुरामन (मैनेजमेंटगुरु)
जिस क्षण पुलिसकर्मी कमरे से बाहर गया, वह लड़का हाथ जोड़कर रोने लगा। उसने बताया कि वह एक हफ्ते पहले ही बिलासपुर से भोपाल काम की तलाश में आया, क्योंकि उसकी मां को दो बहनों सहित तीन बच्चों का पालन-पोषण करने में काफी संघर्ष करना पड़ रहा है। मां की इच्छा के विरुद्ध उसने अपना शहर इस वादे के साथ छोड़ा कि वह जल्द ही शहर में कोई अच्छा काम ढूंढ़ लेगा। एक हफ्ते तक काम नहीं मिला तो उसने लौटने का इरादा किया लेकिन, उसके नाजुक शरीर के भीतर के 'पुरुष' ने उसे खाली हाथ लौटने से मना किया और इसलिए उसने उस रात चोरी करने की कोशिश की। सारिका ने उसे बताया कि कैसे बिना पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी सब्जियां बेचकर अथवा लॉन्ड्री का काम करके सम्मानजनक जीवन जी सकता है। उन्होंने उससे वादा लिया कि वह फिर कभी ऐसी हरकत नहीं करेगा। लड़का गौर से सुन रहा था और स्वीकार में गर्दन हिला रहा था। इस बीच पुलिसकर्मी कई बार कमरे झांककर देख चुका था ताकि वह उसे लेकर आगे की कार्रवाई करे- जिसका नतीजा अलग भी हो सकता था। साथी पुलिसकर्मियों की आलोचना के विरुद्ध सारिका ने उसे खाने को दिया और बुरी तरह जख्मी गर्दन का इलाज कराया, उसे हबीबगंज स्टेशन पर छोड़ा और बिलासपुर का टिकट देकर रवाना कर दिया। उन्हें अपने इस काम का नतीजा तो पता नहीं था लेकिन, कहीं पर गहरा विश्वास था कि यह अच्छा ही होगा। बरसों बीत गए। 2015 में सारिका के फोन की घंटी बजी- वे तब तक विशेष सशस्त्र बल में वरिष्ठ अधिकारी बन चुकी थीं। फोन नंबर अज्ञात था। दूसरी तरफ से आई आवाज उन्हें बार-बार धन्यवाद दे रही थी कि उन्होंने उसे सम्माननीय जीवन शुरू करने में मदद की। यह वही लड़का था, जो अब बिलासपुर के शनिचरी बाजार में लॉन्ड्री चला रहा था। मां-बेटे दोनों वहां काम करते हैं और उसने एक बहन की शादी भी कर दी थी। जब इतने बरसों पुराने अपने फैसले का नतीजा उन्हें मालूम पड़ा तो उनका दिल खुशी से नाच उठा, लेकिन वे खुद के लिए सिर्फ तालियां ही बजा सकीं, क्योंकि वे यूनिफॉर्म में थीं। वे फिलहाल भोपाल में एडिशनल एसपी (कानून-व्यवस्था) हैंं।
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वर्ष 2012 में किसी वक्त सारिका शुक्ला भोपाल के मिसरोद में एडीओपी (अनुविभागीय दंडाधिकारी) नियुक्त हुईं। गश्ती दल से देर रात आए फोन कॉल में उन्हें बताया गया कि विधाननगर की किसी बहुमंजिला इमारत के
तीसरे फ्लोर की एक खिड़की से किसी व्यक्ति का शरीर लटका हुआ है अौर सिर अंदर की ओर फंसा है। जाहिर था कि सेंध लगाने की कोिशश में यह व्यक्ति फंस गया है। उस व्यक्ति को बचा लिया गया और उसके पास से कुल्हाड़ी का फल बरामद हुआ, जिससे उसका इरादा जाहिर होता था। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। यह जगजाहिर है कि चोर रंगे हाथों पकड़ा जाए तो जांच अधिकारी अपने सारी अनसुलझे चोरी के प्रकरण उसके मत्थे मढ़कर सराहना बटोर लेता है। अगली सुबह सारिका ने थाना प्रभारी से चोर को उनके ऑफिस में पेश करने को कहा। सारिका की अनुभवी आंखों ने कुछ ही सेकंड में मामले का अनुमान लगा लिया। उन्होंने आंखों से इशारा कर साथ में आए पुलिसकर्मी को बाहर जाने को कहा। सारिका ने देखा भूरी आंखों वाला गोरा-दुबला और मासूम से चेहरे वाला 14-15 साल का लड़का किसी भी दृष्टि से आदतन अपराधी नहीं लगता था, जैसाकि उसे धरदबोचने वाली टीम ने बताया था। उनके दिल ने कहा कि इसने शायद पहली बार ही यह अपराध किया है। जिस क्षण पुलिसकर्मी कमरे से बाहर गया, वह लड़का हाथ जोड़कर रोने लगा। उसने बताया कि वह एक हफ्ते पहले ही बिलासपुर से भोपाल काम की तलाश में आया, क्योंकि उसकी मां को दो बहनों सहित तीन बच्चों का पालन-पोषण करने में काफी संघर्ष करना पड़ रहा है। मां की इच्छा के विरुद्ध उसने अपना शहर इस वादे के साथ छोड़ा कि वह जल्द ही शहर में कोई अच्छा काम ढूंढ़ लेगा। एक हफ्ते तक काम नहीं मिला तो उसने लौटने का इरादा किया लेकिन, उसके नाजुक शरीर के भीतर के 'पुरुष' ने उसे खाली हाथ लौटने से मना किया और इसलिए उसने उस रात चोरी करने की कोशिश की। सारिका ने उसे बताया कि कैसे बिना पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी सब्जियां बेचकर अथवा लॉन्ड्री का काम करके सम्मानजनक जीवन जी सकता है। उन्होंने उससे वादा लिया कि वह फिर कभी ऐसी हरकत नहीं करेगा। लड़का गौर से सुन रहा था और स्वीकार में गर्दन हिला रहा था। इस बीच पुलिसकर्मी कई बार कमरे झांककर देख चुका था ताकि वह उसे लेकर आगे की कार्रवाई करे- जिसका नतीजा अलग भी हो सकता था। साथी पुलिसकर्मियों की आलोचना के विरुद्ध सारिका ने उसे खाने को दिया और बुरी तरह जख्मी गर्दन का इलाज कराया, उसे हबीबगंज स्टेशन पर छोड़ा और बिलासपुर का टिकट देकर रवाना कर दिया। उन्हें अपने इस काम का नतीजा तो पता नहीं था लेकिन, कहीं पर गहरा विश्वास था कि यह अच्छा ही होगा। बरसों बीत गए। 2015 में सारिका के फोन की घंटी बजी- वे तब तक विशेष सशस्त्र बल में वरिष्ठ अधिकारी बन चुकी थीं। फोन नंबर अज्ञात था। दूसरी तरफ से आई आवाज उन्हें बार-बार धन्यवाद दे रही थी कि उन्होंने उसे सम्माननीय जीवन शुरू करने में मदद की। यह वही लड़का था, जो अब बिलासपुर के शनिचरी बाजार में लॉन्ड्री चला रहा था। मां-बेटे दोनों वहां काम करते हैं और उसने एक बहन की शादी भी कर दी थी। जब इतने बरसों पुराने अपने फैसले का नतीजा उन्हें मालूम पड़ा तो उनका दिल खुशी से नाच उठा, लेकिन वे खुद के लिए सिर्फ तालियां ही बजा सकीं, क्योंकि वे यूनिफॉर्म में थीं। वे फिलहाल भोपाल में एडिशनल एसपी (कानून-व्यवस्था) हैंं।
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साभार: भास्कर समाचार
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