एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
ज्यादातर लोगों को यह मूर्खतापूर्ण कवायद लग सकती है और इसमें लगने वाला समय कई लोगों को अप्रासंगिक लग सकता है। कुछ के लिए तो यह शर्मिंदगी की वजह है, कम से कम मेरी बेटी के लिए तो है ही जो कहती है, 'मेरे दोस्त, सहेलिया मेरे और आपके बारे में क्या सोचेंगे जब वे यह कहानी सुनेंगे?' किंतु दो लोगों ने अनजाने ही मुझे यह कहानी आपके साथ साझा करने के लिए प्रेरित किया, जो 1970 की है। मैं आपको बताऊंगा कि वे दो कौन है, पर थोड़ी देर बाद। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। मेरा पिता को विभिन्न कटौतियों के बाद 330 रुपए का वेतन मिलता था तो वे पोस्ट ऑफिस के रेकरिंग डिपॉजिट में परिवार के चारों सदस्यों के नाम 5-5 रुपए जमा करते थे और वह भी वेतन मिलने के अगले ही दिन। चारों खातों की तारीखें अलग-अलग थी, इसलिए उनके परिपक्व होने की तारीखें भी अलग थीं। मुझे याद है वह पहला दिन जब वे मुझे पोस्ट ऑफिस ले गए और चारों खातों में 5-5 रुपए मुझसे जमा करवाए। चूंकि मेरी ऊंचाई ज्यादा नहीं थी तो काउंटर पर बैठे क्लर्क को केवल मेरा हाथ ही दिखाई दिया। वह मुझ पर यह कहते हुए चिल्लाया, 'कहां हो भाई, क्यों मां-बाप को फुर्सत नहीं है क्या?' मैं डर गया और मुड़कर पिताजी को देखने लगा, जिन्होंने इशारे से कहा, 'वहीं खड़े रहो, कुछ नहीं होगा। मैं हूं न।' चिड़चिड़े काउंटर क्लर्क के कुछ प्रश्नों के जवाब मैं दे नहीं पाया और उसने चारों फॉर्म और पैसे मेरी अोर धकेल दिए। इसके कारण कुछ पैसे नीचे गिर गए और कुछ काउंटर पर रह गए, जो मैं देख नहीं सकता था। मुझे डर लगा कि कहीं मैं कुछ पैसे गंवा बैठूं और यह सोचकर मेरी आंखों में आंसू गए।
मेरे पिता उस शेर की तरह झपटे, जिसे किसी पिंजरे से अपने शिकार को खाने के लिए छोड़ दिया गया हो। उन्होंने पूरी कतार को रोक दिया और काउंटर क्लर्क को एक बच्चे के साथ दुर्व्यवहार करने के लिए माफी मांगने पर मजबूर किया। उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि वे मेरे पिताजी हैं, लेकिन उन्होंने पूरे पोस्ट ऑफिस को यह समझा दिया कि ये छोटी-छोटी चीजें उनके जैसे कामकाजी व्यक्तियों को युवा पीढ़ी में विकसित करनी चाहिए ताकि उन्हंे बचत की आदत पड़े और वह इसका लुत्फ उठाए। संयोग की बात थी कि लंबी कतार में लगे लोगों का कुछ समय मेरी अनुभवहीनता के कारण बर्बाद हो गया था, लेकिन उन्होंने पिताजी की बात का समर्थन किया और काउंटर क्लर्क मेरे साथ वैसा ही व्यवहार करने पर मजबूर हुआ, जैसा वह किसी अन्य वयस्क के साथ करता। सार्वजनिक जगहों पर काम करने वाले सभी लोगों को उनके पास किसी काम से आने वाले नई पीढ़ी के बच्चों को प्रोत्साहित करना चाहिए। एक परिवार के रूप में हमारी बचत सिर्फ 20 रुपए प्रतिमाह थी और महीने दर महीने उसे जमा करना मेरा काम था। पिताजी फिर शायद ही कभी पोस्ट ऑफिस आए सिवाय परिपक्वता की तिथि के क्योंकि उस दिन तो उनके हस्ताक्षरों की जरूरत होती थी।
हमारी पहली खरीदी थी रसोई गैस का कनेक्शन। 268 रुपए और 60 रुपए सिलेंडर का डिपॉजिट। उसकी रसीद अब भी मेरे पास है। फिर आया उषा सिलिंग फैन, जिसकी कीमत 300 रुपए से कम थी। बाद में गोदरेज की अलमारी और डायनिंग टेबल आए। सब पोस्ट ऑफिस खाते के परिपक्व होने से मिली राशि से खरीदे गए थे। इस तरह लंबे समय तक किफायती तौर तरीके से अर्जित वस्तु के होने का लुत्फ ही अलग होता है और उसका उपयोग भी ज्यादा अच्छी तरह से किया जाता है, लापरवाही से नहीं। मुझे उन्होंने सबसे बड़ा सबक दिया, वह यह था कि सुकून चाहते हो? तो बचत करना शुरू कर दो। नो लोन प्लीज़!! उन दिनों एशो-आराम के लिए तो ठीक, जिंदगी की जरूरी चीजों के लिए भी ऋण लेना ठीक नहीं समझा जाता था। जिन दो व्यक्तियों ने मुझे यह कहानी शेयर करने के लिए मजबूर किया, वे थे 21 वर्षीय द्रव्य ढोलकिया, सूरत स्थित 54 वर्षीय हीरा व्यापारी सावजी ढोलकिया के पुत्र। जो हाल ही में अपनी जिंदगी के अनोखे दौर के लिए चर्चित हुए। सीनियर ढोलकिया चाहते थे कि मुंह में सोने का चम्मच लेकर पला-बढ़ा उनका पुत्र हर रुपए की कीमत समझे, उसका आदर करे।
6000 करोड़ रुपए के बिज़नेस के उत्तराधिकारी द्रव्य ने छोटे-मोटे काम करके बेशकीमती 3,950 रुपए कमाए। इतना ही नहीं पिता द्वारा आपातकाल में खर्च करने के लिए दी गई राशि से भी उन्होंन 550 रुपए बचाए, जो उन्होंने उनकी यात्रा की शुरुआत में दी थी।
फंडा यह है कि बच्चोंमें लाइफ-स्किल और नैतिक मूल्य विकसित करने के लिए उन्हें रोजमर्रा के कामों से गुजारिये। वे चाहे इसे पसंद करें, लेकिन आगे जाकर वे इसका महत्व समझ जाएंगे।
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साभार: भास्कर समाचार
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