एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
रियो ओलिंपिक में तीन लड़कियां भारत के लिए उद्धारक बनी हैं। सभी ने परेशानियों से उबरने और जीत का जज्बा दिखाया। सिल्वर मेडल जीतने वाली पीवी सिंधु, ब्रॉन्ज मेडल जीतने वाली साक्षी मलिक और 0.15 पॉइंट से ब्रॉन्ज मेडल चूकने वाली दीपा कर्माकर असंभाव्य नायिकाएं बन गईं हैं। इन्होंने 1992 के बार्सिलोना
ओलिंपिक के बाद पहली बार खाली हाथ आने से बचाते हुए देश का सम्मान बनाए रखा। विशेषज्ञों का मानना है कि साक्षी जीत के बाद सिंधु से ज्यादा खुश थी। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। वैसे सिल्वर मेडल जीतने वाले को ब्रॉन्ज जीतने वाले से ज्यादा खुश होने चाहिए, लेकिन इंसानी दिमागी गणित के सिद्धांतों पर काम नहीं करता। विशेषज्ञों ने एक पेपर मुझे सौपा है, 'द थ्योरी ऑफ काउंटरफेक्चुअल थिंकिंग'। इसमें बताया गया है कि खुशी का स्तर ब्रॉन्ज मेडल जीतने वाली में सिल्वर मेडल जीतने वाली से अधिक था। इस खुशी का कारण है 'काउंटरफेक्चुअल थिंकिंग'। मनोविज्ञान का यह सिद्धांत कहता है कि इंसान में आदत होती है कि वह जीवन में घट चुकी घटनाओं के संभावित विकल्पों के बारे में सोचता है। ये विकल्प उससे उलट होते हैं, जो घटा है।
यह संभव है कि मेडल स्वीकार करते समय सिंधु के दिमाग में यह चल रहा हो, 'अगर मैं इस खास तरीके से खेलती तो गोल्ड मेडल जीत सकती थी'। वहीं साक्षी के दिमाग में चल रहा होगा कि कम से कम मेडल तो मिल गया। यह दो अलग-अलग विचार प्रक्रियाएं इन दो लड़कियों के चेहरे के भाव बना रही थी। नि:संदेह दोनों ने देश का मान बढ़ाया है, लेकिन मनोविज्ञान के विशेषज्ञों ने इनके चेहरे के भावों को भविष्य के अनुसंधान कार्यों के लिए पढ़ा। एक और तर्क है कि आमतौर पर हारने के बाद सिल्वर मेडल मिलता है, जबकि ब्रॉन्ज मेडल जीतने के बाद। यह भी भावों को बदल सकता है। इस तर्क को मैं दरकिनार नहीं कर सकता। ऐसा ही हमारे जीवन में भी शायद रोज होता है। मैं हमेशा इस तरह की स्थिति को अपने स्कूल के दिनों से जोड़ता हूं, जहां मेरा नंबर पांचवां या छठा होता था, जबकि मैं पहली रेंक पाने वाले से ज्यादा खुश होता था क्योंकि 'काउंटरफेक्चुअल थिंकिंग' संभवत: मुझे बेहतर अनुभव करने में मदद करती थी। मौजूदा परिणाम की तुलना कम चाहे गए परिणाम से करने पर व्यक्ति को मौजूदा स्थिति पर ही अच्छा अनुभव होता है। उदाहरण के तौर पर मैं सोचता था कि कम से कम हमेशा क्लास के टॉप टेन में तो होता हूं। मैं यह नहीं सोचता था कि मैं प्रथम भी हो सकता हूं। किंतु इस विचार का बड़ा नकारात्मक पक्ष भी है। रिसर्च पेपर पढ़ने के बाद यह समझ पाया हूं कि क्यों हमेशा थोड़े अंतर से पहला स्थान पाने से चूक जाता था, जबकि मुझमें टॉप पर आने की पूरी क्षमता थी। मेरे पिता हमेशा मुझे क्लास में प्रथम आने के लिए प्रेरित करते थे, लेकिन मैं टाल जाता था और इससे मैं कम प्रभावशाली काउंटरफेक्चुअल थिंकिंग की ओर चला गया। रिसर्च पेपर के अनुसार टालने की आदत वाले अच्छे काउंटरफेक्चुअल के स्थान पर निचले काउंटरफेक्चुअल विचारों में घिर जाते हैं। वे आत्मसंतुष्ट हो जाते हैं और उनमें चुनौतियों और बदलाव के प्रति प्रेरणाशक्ति कम हो जाती है। जबकि पूर्णतावादी अलग होते हैं। इनमें काउंटरफेक्चुअल थिंकिंग बिल्कुल भी काम नहीं करती, क्योंकि उनका लक्ष्य हमेशा टॉप पर जाना होता है। पेपर आगाह करता है कि अधिक काउंटरफेक्चुअल विचार व्यक्ति को परेशानियों के प्रति चिंता की ओर भी ले जा सकते हैं, जिससे उनमें तनाव बढ़ता है। यह भारतीय छात्रों के संबंध में ज्यादा उचित लगता है, क्योंकि वे बेहतर परिणामों के प्रति बहुत ज्यादा फोकस्ड रहते हैं और त्रुटिपूर्ण काउंटरफेक्चुअल थिंकिंग की ओर जा सकते हैं।
फंडा यह है कि माता-पिता इसे आजमाने से पूर्व बच्चों के माइंडसेट के अनुसार इसे समझें। यह अच्छी पेरेंटिंग के लिए जरूरी सबक है।
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार
For getting Job-alerts and Education News, join our Facebook Group “EMPLOYMENT BULLETIN” by clicking HERE. Please like our Facebook Page HARSAMACHAR for other important updates from each and every field.