एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
बात जुलाई 2005 में भूटान के पर्वतों की तलहटी क्षेत्र की है, जो उत्तरी असम की सीमा से लगा है। बोडो और उल्फा आतंक चरम पर था। पूरे क्षेत्र में रात का कर्फ्यू था। लंबे ऑपरेशन के बाद सिख सैनिकों वाली 62 फील्ड रेजिमेंट बटालियन मुख्यालय लौट रही थी। नेतृत्व कर्नल शुबोधोय मुखर्जी के हाथ में था। उन्होंने देखा कि एक
आदमी पागलों की तरह ठेले को धक्का मारते हुए दौड़ रहा है। उन्हें यह अजीब लगा, क्योंकि कोई भी रात में बाहर निकलने की हिम्मत नहीं करता था। सेना ने ठेले को रोका और नियंत्रण में लिया। सैनिकों ने मोर्चा संभाला और चेतावनी दी। कर्नल उस व्यक्ति तक पहुंच गए। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। वह पहले ही घुटनों के बल गिर गया था और हाथ ऊपर कर लिए थे। सैनिकों ने 70 साल के आदमी के चेहरे पर टॉर्च से रोशनी डाली। वह सिर्फ हडि्डयों का ढांचा था, बनियान और टॉवेल पहने। कर्नल ठेले के पास पहुंचे और देखा कि क्या लपेट रखा है। मोटे कंबल के नीचे एक बुर्जुग महिला थी, नाम था कांता। बुखार से अचेत और कांपती हुई। यह दृश्य इस गुरुवार को 42 साल के दाना मांझी के वायरल वीडियो जैसा ही था। दिहाड़ी पर काम करने वाला यह मजदूर पत्नी का शव अकेला कांधे पर अस्पताल से भूवनेश्वर के कालाहांडी ले जा रहा था। उसे कोई वाहन नहीं दिया गया था।
सैनिकों को कोई निर्देश नहीं दिए गए थे, लेकिन उन्होंने गंभीरता को समझा। बुजुर्ग के चेहरे से टॉर्च हटाई, तानी हुई राइफलें हटा ली गईं और महिला को कर्नल की जीप में लेटा दिया गया। दो जवानों ने बुजुर्ग की मदद की। किसी ने शेष सैनिकों को ले जाने के लिए मुख्यालय को अतिरिक्त वाहन भेजने को कहा एक भी शब्द नहीं कहा गया, बुजुर्ग से भी नहीं। कर्नल इस बात से काफी खुश थे कि निर्देश देने की जरूरत नहीं पड़ी। बुजुर्ग ने बिना पूछे ही कहानी बताई, 'बोधी, मेरी पत्नी यूं तो बहुत मजबूत है, लेकिन इस बार हालत खराब है। दो दिन से बीमार थी, रात में बुखार बहुत बढ़ गया, बेहोश हो गई। मेरे पास वाहन नहीं है, इसलिए सोचा कि ठेले पर ले जाऊंगा। बचाने की पूरी कोशिश करुंगा'। सेना ने जिस जगह से बुजुर्ग को अपने साथ लिया था, वहां से अस्पताल 12 किलोमीटर दूर था। इतनी ही दूरी खबरों में सुर्खी बने ओडीशा के दाना ने अस्पताल से तय कर ली थी।
सेना महिला को अस्पताल ले गई और भर्ती कराया। डॉक्टरों ने तुरंत उपचार शुरू किया। दो सिख जवान वहीं रुक गए, जबकि बाकी रात को मुख्यालय चले गए। जो लौट आए थे वे भी रात को ठीक से सो नहीं सके। अगले दिन सुबह वे बिना बताए कलेक्टर ऑफिस पहुंचे। उन्होंने आम लोगों की मदद के लिए सुझाव मांगे। कुछ अफसरों ने हालात और लोगों के दुख पर बात की। सेना जवाब में 'ना' सुनने के लिए तैयार नहीं थी, लेकिन भारी मन से लौटी। वे हल खोजने का निर्णय कर चुके थे। अधिकारियों ने कर्नल के सामने एक समाधान रखा कि 'चूंकि यह आर्मी का ही लगाया हुआ कर्फ्यू है, इसलिए क्षेत्र में नि:शुल्क जरूरी सेवाएं शुरू की जा सकती, जो आपात स्थिति से निपटने में मददगार हों और कुछ मानवीय कार्य भी इसमें शामिल हों।' इसके लिए सेना में बहुत दृढ़-निश्चय और कड़े परिश्रम की जरूरत थी ताकि सुरक्षा और पहुंच सुनिश्चित की जा सके। इसके बाद सिख युवकों ने दो अस्थायी एम्बुलेंस के साथ इमरजेंसी रिस्पॉन्स सर्विस का सैटअप तैयार कर लिया गया। यह काफी सफल रहा। दुख की बात यह रही कि तीन दिन बाद बुजुर्ग महिला की निमोनिया के कारण मौत हो गई।
सेना महिला को अस्पताल ले गई और भर्ती कराया। डॉक्टरों ने तुरंत उपचार शुरू किया। दो सिख जवान वहीं रुक गए, जबकि बाकी रात को मुख्यालय चले गए। जो लौट आए थे वे भी रात को ठीक से सो नहीं सके। अगले दिन सुबह वे बिना बताए कलेक्टर ऑफिस पहुंचे। उन्होंने आम लोगों की मदद के लिए सुझाव मांगे। कुछ अफसरों ने हालात और लोगों के दुख पर बात की। सेना जवाब में 'ना' सुनने के लिए तैयार नहीं थी, लेकिन भारी मन से लौटी। वे हल खोजने का निर्णय कर चुके थे। अधिकारियों ने कर्नल के सामने एक समाधान रखा कि 'चूंकि यह आर्मी का ही लगाया हुआ कर्फ्यू है, इसलिए क्षेत्र में नि:शुल्क जरूरी सेवाएं शुरू की जा सकती, जो आपात स्थिति से निपटने में मददगार हों और कुछ मानवीय कार्य भी इसमें शामिल हों।' इसके लिए सेना में बहुत दृढ़-निश्चय और कड़े परिश्रम की जरूरत थी ताकि सुरक्षा और पहुंच सुनिश्चित की जा सके। इसके बाद सिख युवकों ने दो अस्थायी एम्बुलेंस के साथ इमरजेंसी रिस्पॉन्स सर्विस का सैटअप तैयार कर लिया गया। यह काफी सफल रहा। दुख की बात यह रही कि तीन दिन बाद बुजुर्ग महिला की निमोनिया के कारण मौत हो गई।
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साभार: भास्कर समाचार
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