कॉलेज,रेलवे, बैंक तकरीबन हर अच्छी जगह से उन्हें कॉल आए पर उनकी इच्छा तो थी उसी स्कूल में टीचर बनना जहां वो पढ़ी-बढीं। हम बात कर रहे हैं 54 साल की डॉ. शोभा मिश्रा की। जो दृष्टिहीन हैं और 20 साल से अपने जैसे लोगों के लिए ही समर्पित भी। बिलासपुर की डॉ. मिश्रा बताती हैं कि जब वह पढ़ने जाती थीं, तब लोग
ताने कसते थे। कहते थे, आंखें नहीं, आगे चलकर मांगकर ही जीवन गुजारेगी। तो पढ़ाई का ढाेंग क्यों? इन्हीं तानों से मनोबल और बढ़ जाता था। सोचती थी कि मांगने वाली नहीं, देने वाली बनूंगी। मेरे जैसा औरों को बनाऊंगी। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। 21वीं सदी में भी लोग स्पेशल बच्चों को हेय दृष्टि से देखते हैं। वे सोचते हैं कि ऐसे बच्चे भीख मांगकर ही जीएंगे। बस यही सोच बदलनी थी। शोभा जब पांच साल की हुई, तब वह मस्तिष्क ज्वर हुआ था। इलाज के दौरान आंखों में दवा डाली और हमेशा के लिए की रोशनी चली गई। पिता भगवती प्रसाद मिश्रा के घर में पिता मिश्रा ने हरसंभव कोशिश की पर फायदा नहीं हुआ। उस इलाके में तो दृष्टिहीन बच्चों के लिए स्कूल तक नहीं था। पिता ने स्थानीय नेताओं के साथ मिलकर कोशिशें की और स्कूल खुलवाया। वहां की पहली छात्रा बनी शोभा। इसके बाद वो दिल्ली गईं। दो साल बाद बिलासपुर लौट आईं।
शोभा बताती हैं 'मैं पढ़ाई जारी रखना चाहती थी पर एेसा स्कूल ही नहीं था जो मुझ जैसे बच्चों को पढ़ा सके। पापा ने देवकीनंदन स्कूल में दाखिला दिलाया। वहां सामान्य बच्चों के साथ पढ़ती थीं। काफी दिक्कतें आईं। मां ने मुश्किलों को समझा। फिर घर में मां किताब पढ़ती थीं, जिसे सुनकर शोभा याद कर लेती थी। ऐसे ही 11वीं तक पढ़ाई की।'
करीब 20 साल से वो शासकीय दृष्टि एवं श्रवण बाधितार्थ स्कूल तिफरा में पढ़ा रही हैैं। उनकी प्रेरणा से 100 बच्चों की जिंदगी की दिशा बदल गई है। उनके आधा दर्जन से ज्यादा स्टूडेंट्स नौकरी कर रहे हैं। शोभा के मुताबिक 'एमए पूरा करने के बाद कई ऑफर आए पर उनका लक्ष्य अपने जैसे बच्चों काे ही जिंदगी संवारने के लिए राह दिखाना था। इसलिए राज्य परिवहन निगम में परिचारिका की नौकरी करते हुए पीएचडी की। 1994 में पीएचडी पूरी हो गई। 1995 में शासकीय दृष्टि एवं श्रवण बाधितार्थ विद्यालय तिफरा में यूटीडी भर्ती का विज्ञापन निकला। आवेदन दिया और परीक्षा देने के बाद चयन भी हो गया।
शोभा का मानना है शिक्षित होकर ही लोगों को जवाब दिया जा सकता है।
करीब 20 साल से वो शासकीय दृष्टि एवं श्रवण बाधितार्थ स्कूल तिफरा में पढ़ा रही हैैं। उनकी प्रेरणा से 100 बच्चों की जिंदगी की दिशा बदल गई है। उनके आधा दर्जन से ज्यादा स्टूडेंट्स नौकरी कर रहे हैं। शोभा के मुताबिक 'एमए पूरा करने के बाद कई ऑफर आए पर उनका लक्ष्य अपने जैसे बच्चों काे ही जिंदगी संवारने के लिए राह दिखाना था। इसलिए राज्य परिवहन निगम में परिचारिका की नौकरी करते हुए पीएचडी की। 1994 में पीएचडी पूरी हो गई। 1995 में शासकीय दृष्टि एवं श्रवण बाधितार्थ विद्यालय तिफरा में यूटीडी भर्ती का विज्ञापन निकला। आवेदन दिया और परीक्षा देने के बाद चयन भी हो गया।
शोभा का मानना है शिक्षित होकर ही लोगों को जवाब दिया जा सकता है।
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साभार: भास्कर समाचार
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