Wednesday, May 18, 2016

लाइफ मैनेजमेंट: पेरेंटिंग एक संस्था है: इसका विकास हमारे हाथ में

एन रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
पेरेंट 1: इन दिनों मेरे सर्कल के कई दोस्त अपने बच्चों के ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन सेरेमनी के फोटो वॉट्सएप पर पोस्ट कर रहे हैं। किसी का बच्चा डलास से तो किसी का स्टेनफोर्ड या कैलिफोर्निया या मैनचेस्टर या लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से निकला है। सफलता की इन कहानियों के बीच राहिल की कहानी ने मेरा
ध्यान खींचा। वह सिर्फ 15 साल का है और इंदौर में रहता है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। वह शहर के श्रेष्ठ स्कूलों में से एक डेली कॉलेज में पढ़ता है। भारतीय मानकों के अनुसार उसे कोई बहुत अच्छा छात्र नहीं माना जा सकता। (क्योंकि हम 90 प्रतिशत या उससे ऊपर वाले को ही अच्छा मानते हैं) लेकिन वह औसत छात्र भी नहीं है। छठी क्लास तक वह काफी होशियार था। 7वीं के बाद उसका ध्यान खेलों में चला गया। उसने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्क्वाश खेला। फुटबॉल में भी काफी दिलचस्पी है। मैनचेस्टर यूनाइटेड पसंदीदा टीम है और क्रिकेट के दीवाने देश में उसका समय फुटबॉल देखते हुए बीतता है। इस वजह से आगे की कक्षाओं में अंक 65 से 70 फीसदी के बीच रहे। 10वीं में भी उसे इतने ही अंकों की उम्मीद है, जिसका रिजल्ट आना बाकी है। 
बुधवार को सुबह उसकी होम मेकर मां अपर्णा साबू ने एक वॉट्सएप ग्रुप पर पोस्ट किया, 'मेरे 15 साल के बेटे का लिवरपूल अकादमी में एडमिशन हो गया है और मुझे इस बात का पूरा भरोसा था कि ऐसा जरूर होगा।' इस सप्ताह मंगलवार रात उसे लिवरपूल इंटरनेशनल अकादमी से पुणे में एक साल के रेसिडेंशियल सॉकर कोचिंग क्लास में प्रवेश मिलने का कॉल गया। इस साल वह पढ़ाई को एक ओर रखकर फुटबॉल खेलेगा। शायद वह 11 वीं की परीक्षा में शामिल भी हो। आज के दौर में जब अधिकतर माता-पिता अपने बच्चों की अकादमिक उपलब्धियों को सोशल मीडिया पर शेयर करते हैं, अपर्णा उनसे अलग हैं। वे कहती हैं- माता-पिता के तौर पर हम वह करने से इनकार नहीं कर सकते, जिसके लिए उसमें इतना जुनून है। पढ़ाई वह बाद में भी पूरी कर सकता है। आज के दौर में यह बात कहना एक बड़ी बात है। 
पेरेंट 2: कोलकाता के मोयानगुरी गांव स्थित बाजार के वेंडर के बेटे संजय सरकार ने देखा कि उसके पिता उसकी ट्यूशन की फीस चुकाने के लिए अपना भोजन तक छोड़ देते थे। इसलिए उसने अपनी चाची के यहां रहने का फैसला किया, क्योंकि वह स्थान स्कूल से नजदीक था। ताकि आने-जाने में लगने वाला समय बचे और वह स्कूल में मिलने वाले मिड-डे मील पर ही रह सके। स्कूल के बाद वह आठ घंटे घर पर पढ़ाई करता। पिता द्वारा भोजन छोड़कर जाने की तस्वीर उसके मन पर हमेशा के लिए अंकित हो गई। उसकी कमरतोड़ मेहनत और परिवार के त्याग का परिणाम इस सप्ताह सामने गया। हायर सेकंडरी मेरिट लिस्ट में 18 साल के इस लड़के ने दूसरा स्थान प्राप्त किया है। छोटी-छोटी चीजों को लिए संघर्ष करने वाले उस बच्चे के लिए यह कोई छोटा कदम नहीं है। 
पेरेंट 3: इस नौ साल के बच्चे के पास छुट्‌टी और उत्सवों के लिए पिछले दो साल से कोई घर नहीं है और वह नाशिक के एक आश्रम में पढ़ाई करता है। वहीं रहता है। तीन साल पहले महाराष्ट्र के जलगांव में उसके पिता ने आत्महत्या कर ली थी, क्योंकि वे अपने बच्चों की जरूरतें पूरी करने और लोन चुकाने में खुद को असमर्थ पा रहे थे। मां ने भी जान दे दी थी। वहां उसके जैसे कई थे, जिनके तबाह और कमजोर हो चुके माता-पिता ने जान दे दी थी। आजकल पेरेंट्स और बच्चे अक्सर यह शिकायत करते हैं कि वो आपस में एक-दूसरे को समझते नहीं हैं, क्योंकि अधिकांश माता-पिता अपने बच्चों की उनके दोस्तों से तुलना करते हैं और बच्चे माता-पिता के उन संघर्षों से अनजान रहते हैं जो उन्हें पालने-पोसने में वे करते हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि इससे दोनों के बीच फासला बढ़ता जाता है। इससे बचने के लिए माता-पिता को किसी जाल में नहीं फंसना चाहिए और घर पर स्वस्थ संबंध बनाने चाहिए। 
फंडा यह है कि बच्चों के प्रति बड़ों का व्यवहार बदलने की जरूरत है। अच्छी या बुरी पेरेंटिंग जैसी कोई चीज नहीं होती है। क्योंकि यह एक संस्था है और जरूरत के अनुसार इसमें विकास की जरूरत होती है। और इसमें सुधार हमारे ही हाथ में होता है। लाइफ मैनेजमेंट: 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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