एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
सोमवार की शाम को मेरे एक पड़ोसी का बेटा मेरे यहां ठहरा था। उसके माता-पिता किसी जरूरी काम से शहर से बाहर गए थे। वह साथ नहीं गया, क्योंकि उसका फुटबॉल मैच था। देर शाम को मैच खत्म होने के बाद मैदान से उसे लेकर आने की जिम्मेदारी मेरी थी। मैं थोड़ा जल्दी मैदान पर पहुंच गया और देखा कि वह खेल नहीं रहा है,
बल्कि बेंच पर नॉन प्लेइंग खिलाड़ियों के साथ बैठा है। मैं उसके पास बैठ गया और उससे पूछा कि वह क्यों नहीं खेल रहा है। स्कोर क्या हो गया है। उसने मुस्कान के साथ बताया कि वह अभी मैदान से बाहर आया है और टीम मैनेजर ने उसके स्थान पर दूसरे खिलाड़ी को भेजा है। इससे भी ज्यादा खुश होते हुए उसने बताया कि सामने वाली टीम हमसे 2-0 से आगे है! मैंने कहा- सच, मुझे लगा था कि इससे तुम्हें दुख हुआ होगा और तुम निरुत्साहित हो गए होगे। 12 साल का वह लड़का थोड़ा उलझन में दिखाई दिया, लेकिन उसने पूछा कि मुझे दुखी और निराश क्यों होना चाहिए, जबकि रेफरी ने अभी आखिरी सीटी नहीं बजाई है? फिर अचानक वहां मौजूद सभी बच्चों के चेहरों पर मुस्कान छा गई। चाहे वह अतिरिक्त खिलाड़ी हो या उनकी टीम का उत्साह बढ़ाने आए अन्य बच्चे। और सच कहूं तो उसके सवाल का कोई जवाब मेरे पास नहीं था। यह उम्मीद, यह भरोसा अद्भुत था। आखिर में उनकी टीम 4:3 से मैच जीत गई और मेरे चेहरे पर आश्चर्य का भाव था।
जब हम घर लौटे तो आईपीएल क्रिकेट में विराट कोहली की कप्तानी वाली आरसीबी और किंग्स इलेवन पंजाब के बीच खेला जा रहा मैच टीवी पर रहा था। हम टीवी देखते हुए डिनर करने बैठे तब पंजाब की टीम 175 रन का पीछा कर रही थी। जब भी किंग्स इलेवन टीम का कोई विकेट गिरता या उसका कोई खिलाड़ी जोखिम वाला शॉट खेलता तो कैमरामैन प्रीति जिंटा का तनाव भरा चेहरा दिखाता। खिलाड़ी के आउट होने के डर से वे अपनी आंखें बंद कर लेतीं और जैसे-जैसे मैच फैसले की ओर बढ़ रहा था उनके चेहरे पर निराशा के भाव साफ दिखाई देने लगे थे। कुछ ही गेंदें फेंकी जानी बाकी थीं, लेकिन मेरे पास बैठे इस बच्चे के चेहरे पर मैच देखते हुए कोई भाव नहीं रहा था और उसका पक्का भरोसा था कि जब तक आखिरी बॉल नहीं फेंक दी जाती मैच हारा नहीं जाता। यह बात सही भी है, क्योंकि क्रिकेट हो या फुटबॉल कई मैच रोमांच के चरम पर पहुंच कर खत्म होते हैं जैसे कि किंग्स इलेवन पंजाब मात्र एक रन से मैच हार गया। अंतिम गेंद फेंके जाने तक भरोसा कायम होना चाहिए।
मेरे पास बैठे बच्चे ने इस हार का जिम्मेदार प्रीति जिंटा को ठहराया। उसका तर्क था कि जब भी कैमरा प्रीति के चेहरे पर जाता और उसका तनावभरा चेहरा स्क्रीन पर दिखाया जाता, बैट्समैन व्यग्र हो जाता और इसलिए वह जीत के आखिरी दो रन नहीं बना पाया। उसने कहा कि आईपीएल मैचों में जीत रन का पीछा करने वाली टीमों की ही हो रही है, इस बात का फायदा किंग्स इलेवन को मिल सकता था, लेकिन वह हार गए, क्योंकि टीम के कप्तान ने नहीं, बल्कि ऑनर ने इतना तनाव बना दिया था। यह मेरे लिए बिल्कुल नई थ्योरी थी। उसने मुझे बताया कि मैं हमेशा अपने पेरेन्ट्स से कहता हूं कि जब मैं खेल रहा होता हूं तब वह अपने भाव प्रकट करें, क्योंकि हममें से अधिकांश स्कूली बच्चे अपने माता-पिता की उम्मीदों के अनुसार रिएक्ट करते हैं। मुझे यह बात बहुत तर्कसंगत लगी और इस बार भी मेरे पास उसकी बात का कोई जवाब नहीं था। जब मैं सोने गया तो सोचने लगा कि जीवन भी एक गेम की तरह है और किसी को भी निराश क्यों होना चाहिए, जब तक कि रेफरी, वह भगवान हमारे जीवन की आखिरी सीटी बजा दे? सच्चाई यह है कि जब तक जीवन है, कोई भी बात असंभव नहीं है और यह कभी भी किसी के लिए भी बहुत लेट होने जैसा नहीं है।
फंडा यह है कि कभी भी समय से पहले खुद सीटी बजाएं। मतलब हार न मानें।
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साभार: भास्कर समाचार
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