देवेंद्र राज अंकुर पूर्व डायरेक्टर, नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (आधुनिक भारतीय रंगमंच में बिल्कुल नई विधा 'कहानी का रंगमंच' के प्रणेता)
अपने लगभग पचास वर्षों के रंगमंचीय जीवन में बहुत से बड़े लोगों से सीखने का मौका मिला है। मेरे पिता बैंक अधिकारी थे। उनका एक कस्बे से दूसरे कस्बे में तबादला होता रहता था। इससे मुझे विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से मिलने और साहित्यिक लोगों से इंटरेक्ट करने का मौका मिला। फिर जब दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिंदी में एमए कर रहा था तो मैंने थिएटर को वैकल्पिक विषय के रूप में चुना। फिर तो साहब ऐसा जुनून सवार हुआ कि में कैम्पस थिएटर में पूरी तरह डूब गया। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। मैं सौभाग्यशाली रहा कि मुझे नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में प्रवेश मिल गया और इस तरह आत्म-संतोष से भर देने वाली थिएटर की लंबी यात्रा शुरू हुई। यह सब बाद की बात है, लेकिन प्रेरित करने की शुरुआत तो एक अध्यापक ने की। उन दिनों हम उत्तरप्रदेश के छोटे से कस्बे कैराना में रहते थे। मैं आठवीं कक्षा का छात्र था। हमारे विद्यालय में सुरेंद्रनाथ सक्सेना अध्यापक होकर आए। वे कुशल अध्यापक तो वे थे ही, उससे भी ज्यादा साहित्य, नाटक और कलाओं के मर्मज्ञ थे। स्वयं नाटक लिखते थे और हम छात्रों के साथ दिन-रात मेहनत कर उनकी तैयारी करवाते थे। शायद यह उन्हीं की संगत का नतीजा था कि आगे चलकर नाटक और रंगमंच मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य हो गया। उनके बाद तो मुझे बहुत से प्राध्यापक मिले, जिनमें सबसे ज्यादा योगदान इब्राहिम अलकाज़ी का रहेगा। किंतु यहां मैं जिस प्रसंग का उल्लेख करने जा रहा हूं, वह गुरुओं से सीखने को लेकर नहीं वरन स्वयं शिष्यों से सीखने और प्रेरित होने से ताल्लुक रखता है। यूं तो हम जीवन में हर पल, हर कदम पर किसी ने किसी से कुछ कुछ सीखते ही रहते हैं- चाहे वह बच्चा हो, युवा हो अथवा बुज़ुर्ग हो, लेकिन कभी-कभी सीखने की यह प्रक्रिया ऐसेे अनुभव से गुजरती है कि आप जिंदगीभर उसे भुला नहीं पाते। इस बात को दोहराने की ज़रूरत नहीं कि मैंने 1975 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल के साथ निर्मल वर्मा की तीन कहानियों की एक समेकित प्रस्तुति 'तीन एकांत' नाम से मंचित की थी, जिसने भारतीय रंगमंच में 'कहानी का रंगमंच' जैसी नई विधा को जन्म दिया अर्थात कहानी का नाट्य रूपांतरण किए बिना, उसे अपने मूल कथ्य एवं फॉर्म के साथ मंच पर प्रस्तुत करना। इस पहली ही प्रस्तुति को एेसा जबर्दस्त रिस्पॉन्स मिला कि तब से लेकर आज तक पांच सौ से ऊपर कहानियों और बीस उपन्यासों को मंचित करने का अवसर मिला है। बहरहाल, जिस अनुभव को शेयर करने के लिए आज बैठा हूं, वह बहुत साल पहले चंडीगढ़ में घटित हुआ। पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में भारतीय नाट्य विभाग में दो साल का पोस्ट ग्रेजुएशन कोर्स चलता है। वहां के दोनों वर्षों के छात्रों के साथ मैं अलग-अलग लेखकों की कहानियों पर काम कर रहा था। एक कहानी में रेलवे प्लेटफॉर्म का दृश्य था। गाड़ी चलने लगती है और दो औरतें (जो शायद मां-बेटी हैं) एक डिब्बे में चढ़ने की कोशिश कर रही हैं और अंदर बैठे यात्री उन्हें रोकते रहते हैं। इस दृश्य को तैयार करवाने से पहले मैंने उनसे कह दिया कि मुझे बार-बार किया जा चुका वह घिसा-पिटा दृश्य नहीं चाहिए, जिसमें कुछ लोग एक लाइन बनाकर खड़े हो जाते हैं, ट्रेन की सीटी और छुक-छुक की आवाजंे़ अथवा प्लेटफॉर्म का शोर। इसके बदले मुझे चाहिए एक ऐसा बिम्ब, जो बेशक दिखने में गाड़ी लगे, लेकिन कहानी के दृश्य को साकार कर दे। विश्वास करें कि जब उन्होंने उस दृश्य को साकार किया तो अद्भुत नज़ारा था- सब लोग मंच पर एक घेरा बनाकर हाथ बांधकर खड़े थे और दो लोग उसके बाहर थे। घेरा घूमना शुरू करता है और वे दोनों अपने संवादों के साथ उसमें घुसने की कोशिश करते हैं और घेरे का हर आदमी अपने हाथों को कभी ऊपर, कभी नीचे करते हुए उन्हें अंदर आने से रोकता है। कहानी के सारे संवाद भी गए और ट्रेन का डिब्बा भी स्थापित हो गया। मुझे नहीं लगता कि इससे ज्ादा अर्थपूर्ण बिम्ब कुछ और हो सकता था। हम हमेशा मंच पर चीजों को जैसे का तैसा प्रस्तुत करने के लिए तैयार रहते हैं, लेकिन उन युवा छात्रों ने जो रच दिया था खेल-खेल में, वह आगे जाकर भी मेरे बहुत काम आया। यहां तक कि मैं जब भी कहीं काम करने जाता हूं तो पहले अभ्यास के रूप में इसी दृश्य को साकार करने के लिए कहता हूं। हम हमेशा युवाओं पर अपना ज्ञान, अपना अनुभव अपना वर्चस्व लादते रहते हैं। यदि हम कभी-कभी इस प्रक्रिया को उलट दें तो काम करनेे का मजा ही कुछ और हो जाएगा। कम से कम मेरा अनुभव तो यही कहता है और आज तक मैं उससे प्रेरणा लेता हूं। कहानी को मूल रूप में प्रस्तुत करने का मेरा विचार अच्छा था, लेकिन दिक्कतें भी खूब आईं। जैसे किसी कहानी में डायलॉग ही नहीं है तो कैसे करेंगे। जैसे अज्ञेय की कहानी 'गैंगरिन' और 'शरणदाता।' गैंगरिन फर्स्ट परसन और शरणदाता थर्ड परसन में लिखी गई है। पहली ही प्रस्तुति निर्मल वर्मा की तीन कहानियां, 'तीन एकांत' के नाम से थी। तीनों मोनोलॉग यानी एकालाप हैं। कहानी का चरित्र ही यह है कि कभी आप नरेटर होते हैं, कभी आप कैरेक्टर होते हैं, कभी आब्जर्वर होते हैं, क्योंकि कई बार लेखक अपने दृष्टिकोण से लिख रहा होता है। तो क्या आप लेखक को मंच पर लाएंगे। हमने ऐसा कभी नहीं किया कि कोई कैरेक्टर लेखक के रूप में मंच पर आए। इतने साल काम करने बाद भी मेरे पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है कि यह कैसे बन जाता है। क्योंकि मैं जहां-जहां जाकर काम करता हूं, वहां जो लोग मिलते हैं, वे भी बड़े महत्वपर्ण है। मैं यह जरूर कह सकता हूं कि काम करने वालों को बड़ा मजा आता है। मेरे लिए तो यह व्यक्तित्व का हिस्सा है। हम आखिर कला अौर साहित्य की तरफ क्यों जाते हैं? इसलिए कि कहीं कहीं हमारे अंदर इन्हें देखने के बाद परिवर्तन होता ही है। फिर कभी-कभी एेसा कथ्य जाता है कि जिसे देखकर आप अपनी जिंदगी के सवालों से रू-ब-रू होते हैं तो और ज्यादा असर पड़ता है। जैसे हम लोग 'अनारो' कर रहे थे। मंजुल भगत का यह उपन्यास घरों में काम करने वाली महिलाओं के बारे में हैं। 1985 की बात है। हम दिसंबर-जनवरी मेें इसको मंचित कर रहे थे। हमने मैटनी में भी शो रखे, दिन में साढ़े तीन बजे। उसे देखने वाले दर्शक वे महिलाएं थीं, जो घरों में काम करती थीं। वे बहुत प्रभावित हुईं और बाद में आकर मिली कि आप लोगों ने तो हमारी जिंदगी को साकार कर दिया। इसी तरह चीन में हम एक बार कृष्णा सोबती की कहानी 'ए लड़की' का हिंदी में मंचन कर रहे थे। हम लोग बहुत डरे हुए थे। समझ में भी आएगा या नहीं आएगा, लेकिन मंचन खत्म होने के बाद वे लोग इतने भाव विह्वल थे कि अरे यह तो हमारे यहां की भी समस्या है कि बूढ़ी कौम अकेली पड़ती जा रही है। वह युवा पीढ़ी को कोसते रहते हैं, डाटते रहते हैं। ऐसा बार-बार होता है, क्योंकि करने वाले मानव हैं, देखने वाले मानव हैं और मानवीय अनुभव की ही बात हो रही है। चाहे साहित्य में हो या अन्य कलाओं में तो कोई कारण नहीं कि दोनों आपस में जुड़े और कहीं कहीं कोई कोई लहर अंदर गुजरेगी ही। सीधे दिखेगी नहीं, उसका असर अंदर महसूस होगा। चीन में कृष्णा सोबती की कहानी 'ए लड़की' का हिंदी में मंचन कर रहे थे। हम डरे हुए थे। समझ में भी आएगा या नहीं, लेकिन मंचन खत्म होने के बाद वे लोग अत्यधिक भाव विह्वल थे। हम हमेशा युवाओं पर अपना ज्ञान, अपना अनुभव अपना वर्चस्व लादते रहते हैं। यदि हम कभी-कभी इस प्रक्रिया को उलट दें तो काम करनेे का मजा ही कुछ और हो जाएगा। |
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