एन रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
स्टोरी 1: अगर सब कुछ योजना के अनुसार हुआ तो 18 साल की यह लड़की अगले कुछ वर्षों में बंगाली टीचर बन जाएगी। संभवत: वह पहली ऐसी लड़की होगी, जो स्कूल की टेबल पर लेटकर पढ़ाएगी। उसे अलग-अलग क्लास में किसी की मदद से ले जाया जाएगा, क्योंकि वह चल नहीं सकती। ऐसा ही पिछले 12 वर्षों से होता रहा
है, इसी तरह उसने हायर सेकंडरी तक की पढ़ाई पूरी की। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। उसकी मां उसे स्कूल ले जाती, स्कूल में उसके लेटने के लिए टेबल होती और वह शिक्षकों को पढ़ाते हुए सुनती। उसने लेटे-लेटे ही अभ्यास करके लिखना सीखा। वह एकॉन्ड्रोप्लेशिया की मरीज है। यह बहुत कम होने वाली जेनेटिक बीमारी है और इसमें रोगी का शरीर और अंग पूरी तरह विकसित नहीं हो पाते। कोलकाता की पियाशा महाल्दर की ऊंचाई सिर्फ 34 इंच है। सिर्फ सिर और गर्दन ही पूरी तरह विकसित हो पाए हैं, लेकिन बाकी अंग पूरी तरह विकसित नहीं हुए और बच्चों जैसे हैं। शरीर बौना है। रीढ़ की हड्डी पर भारी बोझ पड़ता है और इस वजह से रोगी को अधिकांश समय लेटे ही रहना पड़ता है। वह 34 इंच की है और वजन 33 किलो है। उसके हाथ और पैर विकृत हैं। पियाशा नियमित रूप से स्कूल नहीं जा सकी, लेकिन उसके टीचर उसे फोन पर ही सिखाते रहे। वह खुद खड़ी नहीं हो सकती और चल भी नहीं सकती। उसके हाथ की लंबाई भी कम है। गहरे समर्पण वाली कोलकाता पुलिस के असिस्टेंट पुलिस इंस्पेक्टर की बेटी पियाशा को परीक्षा में जवाब लिखने के लिए अतिरिक्त 30 मिनट का समय मिलता, यह समय उसके वर्ग के बच्चों को मिलता है। इस सप्ताह जारी हायर सेकंडरी परीक्षा के परिणाम में उसे 86.4 प्रतिशत अंक मिले हैं। उसने टीचर बनने की ठान ली है और बंगाली में ऑनर्स करना है।
स्टोरी 2: 1990 के शुरुआती दिनों की बात है। तब हाजा फुनयामिन और उसके बड़े भाई स्कूल से लौटते और जल्दी से भोजन करने के बाद तुरंत ही चेन्नई के उपनगर में चाय की दुकानों पर प्याज के समोसे बेचने निकल पड़ते। तब इनकी कीमत 25 पैसे प्रति समोसा होती थी। दोनों भाई मिलकर 300 पीस समोसे लेकर निकलते थे। इसमें उनकी मां के हाथों का स्वाद होता। मां कभी भी सामान की खरीदी और क्वालिटी से समझौता नहीं करती थी। यही कारण है कि कभी ऐसा नहीं होता था कि उनके पास बेचने का कुछ सामान बच जाए। समोसा बेचने का यह सिलसिला तब भी जारी रहा जब हाजा की शादी हो गई और नई आई बहू समोसे बनाने में सास की मदद करने लगी। 2006 में एक फ्रोजन फूड एक्सपोर्ट कंपनी के एग्ज़ीक्यूटिव को उनके बनाए समोसे इतने पसंद आए कि उन्हें एक दिन 5000 समोसे का ऑर्डर दे दिया। ये समोसे वे फ्रीज कर निर्यात करने वाले थे। कुछ ही महीनों में वे नीचे से उठकर अचानक बहुत बड़े हो गए। कंपनी ने तेजी से तरक्की की। उन्होंने तय कर लिया कि अब कोई भी सामान 5 रुपए से कम कीमत का नहीं बेचेंगे। तब उनके समोसे की कीमत 1.25 रुपए थी। उन्होंने कई कर्मचारी रखे और बैंक लोन भी लिया। यह संघर्ष का समय था, लेकिन अपने बुरे दिनों को मात देने की उनकी भावना इतनी मजबूत थी कि हाफा फूड शुरू की, अधिक लोन और नई जगह पर बड़ी फैक्टरी के साथ। उन्होंने 10 हजार समोसे हर महीने की बिक्री के साथ काम शुरू किया था। प्रसिद्धि बढ़ी तो मांग बढ़ने लगी। उनकी रेंज में पनीर रोल, स्प्रिंग रोल और कटलेट भी शामिल कर लिए गए। 2009 तक उन्हें अम्यूजमेंट पार्क से थोक में ऑर्डर मिलने लगे। इसके बाद नंबर आया फ्लाइट किचन्स का और फिर स्टार होटेल्स, आईटी कंपनियों और वेडिंग केटरर्स से भी ऑर्डर आने लगे। 2006 में उनके समोसों की बिक्री 1000 रुपए रोज की थी जो अब बढ़कर 1.5 करोड़ रुपए सालाना हो गई है। उनके पास 45 कर्मचारी है, लेकिन फॉर्मूला सामान है- क्वालिटी से कोई समझौता नहीं।
फंडा यह है कि दुनिया में कोई भी ऐसा नहीं है, जिसके जीवन में असफलताएं हों, संघर्ष हो, लेकिन मजबूत इरादों वाले लोग जीवन में इस तरह की परिस्थितियों पर आसानी से विजय पा जाते हैं।
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साभार: भास्कर समाचार
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