स्टोरी 1: उसके पिताजी लॉन्ड्री चलाते थे। 12 साल का वह लड़का रोज घर-घर से कपड़े इकट्ठा करने और धुले कपड़े पहुंचाने में पिता की मदद करता था। उन घरों में एक घर पूर्व क्रिकेटर अरुण लाल का था। क्रिकेटप्रेमियों को यह तो पता है कि बड़े जीवट वाले लाल कभी टेस्ट में शतक नहीं लगा पाए, लेकिन वे और उनकी पत्नी
देबयानी ने मानवता के लिए बहुत बड़ी पारियां खेली हैं खासतौर पर इस लॉन्ड्री बॉय की जिंदगी में, जिसके बारे में ज्यादा लोगों को पता नहीं है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। अरुण लाल देबयानी से परिचय ने इस लड़के में भी खेलों में रुचि पैदा कर दी। चूंकि अरुण लाल कोलकाता में रहते थे, क्रिकेट का तो इस युवा मन पर ज्यादा असर नहीं हुआ, लेकिन फुटबॉल का गहरा असर हुआ, क्योंकि इस महानगर में फुटबॉलप्रेमियों का बहुत बड़ा तबका है।
यह युवा प्रथम श्रेणी के फुटबॉल क्लब 'यंग बंगाल' में शामिल हो गया। वह पेशेवर फुटबॉलर बनना चाहता था और प्रशिक्षण के दौरान अरुण लाल से मुलाकात करता रहता था। यह क्लब उसे भोजन के अलावा सालाना 10 हजार रुपए दे रहा था, जो उसके लिए बहुत बड़ी बात है। सच तो यह है कि अरुण लाल से परिचय के कारण उसने अंडर-16 क्रिकेट भी खेला है। यदि कोई यह कहे कि पढ़ाई में उसकी उतनी रुचि नहीं थी तो वह गलत नहीं होगा, क्योंकि सब-जूनियर बंगाल फुटबॉल में दिलचस्पी बढ़ने के साथ पढ़ाई में ध्यान कम होता गया। किंतु एक दिन गंभीर विचार-विमर्श के दौरान अरुण लाल ने उससे कहा कि खेल में कोई गारंटी नहीं होती। यह उस युवा के लिए निर्णायक मोड़ साबित हुआ। 9वीं कक्षा में पढ़ रहे किशोर की रुचि अब पढ़ाई में बढ़ने लगी। देबयानी उसे अंग्रेजी पढ़ातीं, जो तब कठिन विषय माना जाता था। अब उसकी जिंदगी दो स्थानों पर गुजरती- पढ़ाई के लिए अरुण लाल का घर, जहां उसे संतरे का ताजा रस मिलता और भवानीपुर का फुटपाथ, जहां उसके पिता लॉन्ड्री चलाते थे। लाल दंपती उससे कहते कि पूरा ध्यान लगाकर की गई एक घंटे की बिना नागा रोज की पढ़ाई किसी के भी कॅरिअर में बहुत फर्क ला सकती है। यही इस युवा ने किया, हालांकि आकर्षण की वजह ऑरेंज ज्यूस भी था।
आगे जाकर उसने बीकॉम और एमकॉम किया। फिर कैट की परीक्षा दी। वर्ष 2000 में उसे आईएमएम कोलकाता में प्रवेश मिला। इसके बाद उसे पहले ड्यूश बैंक और बाद में क्रेडिट एग्रीकोल में नौकरी मिल गई, जिसके तहत उसे लंदन में रहने का मौका मिला। फिर उसने लाल परिवार को उपहार में मर्सेडीज दी, जबकि खुद तुलनात्मक रूप से साधारण वाहन चलाता रहा। उसने उन्हें अपार्टमेंट से बंगले में जाने में मदद की। अपने इन पालकों को उसने सबसे बड़ी भावांजलि तो यह दी कि जब अब 39 साल के हो चुके बिकास चौधरी को कामना से विवाह के बाद कन्या रत्न की उपलब्धि हुई, तो उन्होंने अरुण लाल के नाम पर उसका नाम रखा 'अरुणिमा।' वर्तमान में चौधरी मुंबई की जेएसडब्ल्यू में एसोसिएट वॉइस प्रेसीडेंट हैं।
स्टोरी 2: शनिवार शाम को मेरेे नासिक स्थित घर से केयरटेकर का फोन आया कि हमारे घर के पेड़ों के आम पक गए हैं और इनका लुत्फ उठाने का वक्त गया है। घर पर अपने आप पार्टी जैसी स्थिति बन गई थी, लेकिन चूंकि पूरा परिवार सप्ताह अंत में बहुत व्यस्त था, इसलिए मैंने तय किया कि रविवार सुबह खुद ड्राइव करके वहां जाऊं और घर के गार्डन के आम की पहली फसल लेकर आऊं। हालांकि, आर्थिक रूप से यह कोई सही फैसला नहीं था। मैंने कोई पांच दर्जन अच्छे आमों के लिए पेट्रोल पर अच्छी-खासी राशि खर्च कर दी। किंतु इन आर्गेनिक फलों ने परिवार में खुशियां ला दीं और इसलिए 'चार आने की मुर्गी, दो रुपए का मसाला,' जैसी उक्ति नज़रअंदाज कर दी गई। हम पिछले तीन वर्षों से इन आमों का इंतजार कर रहे थे, जब हमने आम के पौधे लगाए थे। पेड़ लगाना महत्वपूर्ण है। वे सिर्फ पर्यावरण को स्वच्छ रखते हैं, बल्कि फलों की वर्षा भी करते हैं। किंतु युवा मन में शिक्षा के बीज बोना शायद संतोष के ऐसे फल देता है, जिनकी तुलना इन फलों से हो ही नहीं सकती।
फंडा यह है कि पेड़ तो आपको लगाना ही चाहिए, लेकिन युवा मनों में शिक्षा के बीज भी बोइए, क्योंकि इनसे मिला फल, पेड़ों से मिलने वाले फलों से ज्यादा मीठा हता है।
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साभार: भास्कर समाचार
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