एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
उत्सव 1 मार्च से 6 मार्च तक चरम पर रहता है, हालांकि कृष्णा नदी की स्तुति में प्रतिवर्ष फरवरी से मार्च तक 'कृष्णा माई' नामक यह उत्सव मनाया जाता है, जो 300 वर्ष पुरानी परंपरा है। जल प्रवाह और नदी घाटी क्षेत्र के हिसाब से कृष्णा गंगा, गोदावरी और ब्रह्मपुत्र के बाद देश की चौथी सबसे बड़ी नदी है। कृष्णा नदी का
उद्गम जोर गांव के पास महाबलेश्वर में है। यह महाराष्ट्र के सतारा जिले की तहसील वाई के एकदम उत्तर में स्थित जगह है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। 1,300 किलोमीटर लंबी इस नदी को कृष्णवेणी भी कहा जाता है और इसे 'माई' कहने का एक कारण यह है कि कृष्णा नदी महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक के लिए सिंचाई का प्रमुख स्रोत है।
मैं नहीं जानता कि यह ऐतिहासिक रूप से सही है अथवा नहीं, लेकिन किंवदंती है कि अफजल खान के नियंत्रण में वाई और कृष्णा नदी थी। लोगों ने कृष्णा नदी से प्रार्थना कर संकल्प लिया कि यदि खान को बेदखल कर दिया गया तो वे नदी के किनारे उत्सव आयोजित करेंगे। इतिहास बताता है कि शिवाजी महाराज द्वारा अफजल खान का वध किए जाने के बाद यह उत्सव प्रारंभ हुआ। दो दशक पहले महाबलेश्वर जाते समय मैं पहली बार वाई गया था। नदी का पूरा किनारा सभी आकार-प्रकार के तीर्थस्थलों से घिरा हुआ है। बाद के वर्षों में मेरी यात्राओं में यह देखकर मुझे दुख हुआ कि नदी धीरे-धीरे पूरी तरह सूख गई है और पीछे सिर्फ धूल और कीचड़ ही बचा है। इस सदानीरा रही नदी की इस धीमी मौत पर मुझे बहुत दुख हुआ और हाल की मेरी यात्राओं के दौरान भी नदी की दशा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। वास्तव में उसकी हालत और भी खराब हुई है।
वर्तमान में यह नालियों के पानी और कचरे से प्रदूषित है। 1970 के दशक और 1980 के शुरुआती वर्षों में जो पानी प्रदूषण मुक्त और पीने योग्य था, वह अब अस्वास्थ्यकर हो चुका है। समय के साथ नदी ने पेयजल आपूर्ति की अपनी क्षमता खो दी है। धोम बांध बनाए जाने के बाद नदी का प्रवाह प्रभावित हुआ। रही-सही कसर नालियों से निकले गंदे पानी ने कर दी है। मोटेतौर पर रोज 30 लाख लीटर गंदा पानी नदी के प्रवाह में शामिल होता है।
महीनेभर चलने वाले उत्सव में कई प्रकार के कार्यक्रम होते हैं, जो पिछले छह दिनों में अपने चरम पर पहुंच चुके हैं। अाखिरी दिन होने वाला कार्यक्रम 'ललित' कहलाता है, जिसमें पूरेे घाट पर मौजूद छोटे और बड़े मंदिरों में महाप्रसाद दिया जाता है। यही वह दिन होता है, जिस दिन नदी सबसे ज्यादा प्रदूषित होती है। लोग इस विश्वास के चलते हर कचरा नदी में फेंकते हैं कि ईश्वर को अर्पित और उनसे प्राप्त कोई चीज कूड़ेदान में डाली जानी चाहिए, इसलिए पानी यह सारा ग्रहण करता है।
किंतुु पहली बार इस 301वें साल में उत्सव ने बेहतरी की ओर रुख किया है। इस बार श्रद्धालुओं ने पूजा से परे जाकर नदी को स्वच्छ बनाने के लिए समर्पित प्रयास करने का निर्णय लिया। इसके अलावा उन्होंने हर तीर्थयात्री को इस बारे में शिक्षित करने का संकल्प लिया कि वह नदी में कोई चीज डाले। कृष्णा माई की अलंकारिक पूजा करने की बजाय उन्होंने एक नया 'स्वच्छता' अभियान शुरू कर दिया। पानी से जलकुंभी और प्लास्टिक को हटाने में वक्त लगेगा। स्वच्छता का यह विचार स्वर्ण मंदिर या किसी भी गुरुद्वारे में होने वाली कार सेवा से लिया गया है। इसके अलावा वे नदी की निरुपयोगी गाद और अन्य चीजें भी निकाल रहे हैं। स्थानीय संगठन 'समूह' इस अभियान का नेतृत्व कर रहा है।
स्थानीय श्रद्धालुअों में से अाए सैकड़ों स्वयंसेवक खुले में शौच और नदी किनारे कचरा फैलाने के खिलाफ जागरूकता फैलाने में लगे हैं। वे अतिक्रमण करने वालों को भी समझा रहे हैं कि धार्मिक पर्यटन के साथ टिकाऊ और पर्यावरण अनुकूल पर्यटन के संपूर्ण विकास के लिए उन्हें भी हट जाना चाहिए। इससे नदी के प्रवाह मार्ग में बहुत बदलाव आया है। आज तीर्थयात्रियों को यह अहसास हुआ है कि उन्हें उस जगह को आने वाली पीढ़ी के लिए उसी तरह स्वच्छ हरा-भरा छोड़ना चाहिए, जैसा उनके पूर्वजों े उनके लिए छोड़ा था।
फंडा यह है कि वक्त गया है जब दिल में 'अास्था' खोए बिना भक्ति को टिकाऊ भविष्य के अलग दृष्टिकोण से देखना होगा।
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साभार: भास्कर समाचार
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