डॉ. भरत झुनझुनवाला (आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ और आइआइएम बेंगलूर में पूर्व प्राध्यापक)
फेसबुक की पहुंच का विस्तार करने को कंपनी के मुख्याधिकारी मार्क जुकरबर्ग ने ‘फ्री बेसिक्स’ का प्रस्ताव रखा है। रिलायंस कम्युनिकेशन के साथ मिलकर फेसबुक द्वारा उन लोगों को फ्री इंटरनेट सेवा उपलब्ध कराई जाएगी जो वर्तमान में सूचना के इस गेटवे से नहीं जुड़े हैं। इस फ्री इंटरनेट सेवा से ग्राहक
द्वारा फेसबुक द्वारा चिन्हित कुछ साइटों को ही खोला जा सकेगा। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। जैसे फेसबुक को खोला जा सकेगा, परंतु गूगल पर सर्च नहीं की जा सकेगी। अन्य साइट खोलने के लिए ग्राहक को अतिरिक्त शुल्क देना होगा। जुकरबर्ग का कहना है कि इस प्रस्ताव से देश में इंटरनेट सेवा का विस्तार होगा। तमाम लोग लाइब्रेरी से जुड़ सकेंगे।
फ्री बेसिक्स प्रस्ताव के दो पहलू हैं। एक पहलू आम आदमी को फ्री इंटरनेट उपलब्ध कराने का है। यह सकारात्मक पहलू है। दूसरा पहलू फेसबुक द्वारा चिन्हित वेबसाइट मात्र तक फ्री पहुंचने का है। पहली नजर में यह भोला-भाला प्रस्ताव दिखता है। किसी भी वेबसाइट तक न पहुंच पाने की तुलना में कुछ वेबसाइट तक पहुंचना उत्तम दिखता है। लेकिन इस सुविधा का खामियाजा गहरा एवं दीर्घकालीन है। कुछ साइटों मात्र पर फ्री में जाने की छूट देने के पीछे सिद्धांत है कि ग्राहक किन वेबसाइटों पर जा सकेगा, यह इंटरनेट कंपनी तय करेगी। यह उसी प्रकार हुआ कि अखबार का विक्रेता तय करे कि आपके घर में कौन सा अखबार पहुंचाया जाएगा। आप स्वयं तय नहीं करेंगे कि आप भाजपाई अथवा वामपंथी अखबार पढ़ेंगे। आपके विचार विभिन्न अखबारों को पढ़ने से निर्धारित होते हैं और अखबार का निर्धारण विक्रेता करेगा। अत: आपके विचार का निर्धारण आपके विवेक द्वारा नहीं, बल्कि विक्रेता द्वारा निर्धारित होंगे। जैसे आपको सूचना न मिले कि अमुक मंत्री भ्रष्टाचार में जेल गया था तो आप उसे ईमानदार समङोंगे। अत: फेसबुक को विशेष वेबसाइट को फ्री करने का अधिकार देने से दूसरी इंटरनेट कंपनियों द्वारा भी विशेष वेबसाइटों को ब्लॉक करके जनता के विचारों को विशेष दिशा में ढकेला जा सकेगा। आज के युग में सूचना ही शक्ति है। सूचना अधिकार कानून ने जनता को सक्षम बनाया है। अत: सूचना के प्रवाह में कोई भी बाधा देश की जनता की वैचारिक स्वतंत्रता पर कुठाराघात होगा। निजी कंपनियों द्वारा विशेष प्रकार की सूचना परोस कर जनता के दिमाग को तोड़ा-मरोड़ा जा सकेगा। चिली, नीदरलैंड तथा स्लोवेनिया ने पूर्व में ही कानून बनाए हैं कि इंटरनेट कंपनियां सूचना के प्रवाह में किसी भी प्रकार का दखल नहीं करेंगी, जैसे बिजली सप्लाई करने वाली कंपनी दखल नहीं करती है कि बिजली का उपयोग आप पंखा चलाने के लिए करेंगे अथवा मोबाइल चार्ज करने के लिए करेंगे। 1निष्कर्ष है कि इंटरनेट कंपनियों को वेबसाइट तक पहुंचने में किसी भी प्रकार के दखल का अधिकार देना गलत होगा। प्रश्न है कि तब आम आदमी तक इंटरनेट को कैसे पहुंचाया जाए? आज देश में तमाम लोग हैं जो इंटरनेट तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। इस महत्वपूर्ण उद्देश्य को हासिल करने के दूसरे उपाय उपलब्ध हैं। शहरों में नुक्कड़ पर पानी फ्री उपलब्ध कराया जाता है। उसी पानी को पाइप से आपके घर पहुंचाने का मूल्य वसूला जाता है। पानी कंपनी द्वारा दोनों प्रकार के पानी की क्वालिटी में भेद नहीं किया जाता है। अथवा बिजली कंपनियों द्वारा किन्हीं राज्यों में किसानों को फ्री बिजली दी जाती है। शहरी एवं औद्योगिक ग्राहकों से अधिक मूल्य वसूल करके किसानों को सब्सिडी दी जाती है। इसी प्रकार किसी कंपनी द्वारा इंटरनेट के बड़े उपभोक्ताओं से अधिक दाम वसूल करके गरीब, छोटे और नए ग्राहकों को फ्री इंटरनेट उपलब्ध कराया जा सकता है। भारत सरकार द्वारा निजी टेलीफोन कंपनियों पर ‘एक्सेस डेफेसिट चार्ज’ आरोपित किया जाता है, जो कंपनियां ग्रामीण क्षेत्रों में टेलीफोन सुविधा उपलब्ध नहीं कराती हैं उनसे रकम वसूल करके बीएसएनएल को दी जाती है। इस रकम से बीएसएनएल द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में टेलीफोन सुविधा उपलब्ध कराने में आए अतिरिक्त खर्च की भरपाई हो जाती है। सरकार द्वारा इस प्रकार का चार्ज उन इंटरनेट कंपनियों पर लगाया जा सकता है जो कि मुख्यत: बड़े उपभोक्ताओं को सेवाएं उपलब्ध कराती हैं। इस रकम को रिलायंस को देना चाहिए जिससे कि वह आम आदमी को फ्री इंटरनेट सेवा उपलब्ध करा सके। ऐसा करने से जनता की सूचना की स्वतंत्रता रक्षित होगी और इंटरनेट का विस्तार भी होगा।
कुछ जानकारों का मानना है कि इंटरनेट कंपनियों को वेबसाइट तक पहुंचने में दखल करने की अनुमति देने से सूचना की स्वतंत्रता बाधित नहीं होगी। आपसी स्पर्धा के कारण ग्राहक द्वारा उन कंपनियों से इंटरनेट सेवा खरीदी जाएगी जो कि वेबसाइट तक पहुंचने में दखल नहीं करेंगी। सैद्धांतिक स्तर पर इस तर्क में बल है, परंतु देखा जाता है कि शराब कंपनियों की आपसी स्पर्धा में उनके द्वारा गैर अलकोहल पेय को कम ही उपलब्ध कराया जा रहा है। नेताओं के बीच प्रतिस्पर्धा होने के बावजूद बूथ कैप्चर करने वाले नेताओं को जनता लगातार वोट देती है। प्रतिस्पर्धा तभी प्रभावी होती है जब जनता को पूर्ण जानकारी हो और जनता में उस जानकारी से आत्मसात करने की क्षमता हो। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे ‘मार्केट फेल्योर’ कहा जाता है। जैसे विज्ञापनों के माध्यम से जनता को नूडल, पीजा, गुटखा और शराब का सेवन करने को प्रेरित किया जाता है। यदि जनता इन विषयों को समझने में सक्षम होती तो शराब की खरीद न होती। सरकार की जिम्मेदारी है कि जनता के हितों की रक्षा करे। जनता विषय को न समङो तो सरकार उसके हित को हासिल करने का नियम बनाए, जैसे बच्चे के भले के लिए मां उसे थप्पड़ मारती है। प्रतिस्पर्धा से इस प्रकार की समस्याओं का हल नहीं निकलता है। अत: यह तर्क स्वीकार नहीं है कि इंटरनेट कंपनियों द्वारा वेबसाइट में दखल का जवाब उपभोक्ता द्वारा दिया जा सकेगा। यह संभावना ज्यादा है कि उपभोक्ता को गलत सूचना परोसकर उसे गलत माल की खरीद करने को प्रेरित किया जाएगा।
जुकरबर्ग द्वारा देश को भ्रमित किया जा रहा है। आपका उद्देश्य ग्राहकों को गलत माल परोस कर अपने शिकंजे में फंसा लेना है, जैसे अफीम एवं चाय कंपनियों की ओर से किसी समय जनता को फ्री माल देकर इन लतों का विस्तार किया गया था अथवा फ्री सैंपल देकर कंपनियां उपभोक्ता को आकर्षित करती हैं। जुकरबर्ग के प्रस्ताव में संकट है कि इंटरनेट कंपनी द्वारा वेबसाइट तक पहुंचने के रास्ते को तोड़ने-मरोड़ने की छूट मिल जाती है। इस छूट का भयंकर दुरुपयोग हो सकता है। जुकरबर्ग यदि वास्तव में गरीब तक इंटरनेट पहुंचाना चाहते हैं तो उन्हें बिना शर्त सेवा उपलब्ध करानी चाहिए जैसे नगरपालिका द्वारा नुक्कड़ पर फ्री पानी उपलब्ध कराया जाता है।
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साभार: जागरण समाचार
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