Saturday, January 23, 2016

यदि आप युवा हैं और कई संदेह हैं तो इसे जरूर पढ़ लीजिए

कल्पेश याग्निक (दैनिक भास्कर के ग्रुप एडिटर) 
रोहित वेमुला,श्रेष्ठ की दिशा में बढ़ रहे एक सुंदर सपने का नाम था। एक कुरूप झटके ने उस स्वप्न को तोड़ दिया। साथ ही उठ गया कोलाहल -कि स्वार्थ के सवर्ण भाव से उठा भेद इस दारुण दु:ख का कारण बना। सत्ता की उच्च, केंद्रीय प्राचीरों में आरूढ़ मंत्रियों ने अस्वाभाविक हस्तक्षेप किया। शिक्षा परिसरों में राजनेताओं की रुचि स्वाभाविक है। वहां उन्हें कार्यकर्ताओं की विराट सेना मिल जाती है। वहां उन्हें उत्साहित युवा मिल जाते हैं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। जिनके पास ऊर्जा, अथाह होती है। किन्तु दिशा नहीं। जिनके पास समय अधिक होता है, काम कम। जिनके पास शिक्षक कई होते हैं, गुरु बहुत ही दुर्लभ। 

तो यही हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में हुआ। 
वो जो एक श्रेष्ठ शोधार्थी होने जा रहा था, निकृष्ट व्यवस्था का शिकार हो गया। वो जो श्रेष्ठ विज्ञान विद्यार्थी हो रहा था, उसे भ्रष्ट राजनीति ने ज्ञान से ही वंचित कर दिया। 
और अब राष्ट्रभर से राजनेता वहां अपने-अपने शब्दबाणों को, प्रभावी तरह से चलाने जा रहे हैं। भयंकर हलचल मची है। साथ ही वैमनस्य के बीज बोए जा रहे हैं। एक उनके साथ। तो दूसरा उनके विरोध में। प्रश्न उठ खड़े हुए हैं। 
पूछा यह भी जा रहा है कि नेता एेसा क्यों कर रहे हैं? संदेह यह भी व्यक्त किया जा रहा है कि स्वार्थ की एक राजनीति ने रोहित के प्राण ले लिए - तो क्या उकसाने वाली दूसरी राजनीति को आने और बने रहने की अनुमति देना उचित है? आज एक शोधार्थी का अंत हुआ है। कल, भड़के क्रोध से, किसी और सपने को तोड़ा जाएगा। 
तो क्यों हम नेताओं को शैक्षणिक परिसरों में आने ही दें? 
यह सुझाव सत्य से आंखेंं मूंद लेने जैसा है। पूर्णत: अनुचित है। अज्ञानता बढ़ाने वाला है। 
'असंभव के विरुद्ध' का युवाओं पर शतप्रतिशत विश्वास है। उनकी 'पहचानने की क्षमता' पर पूर्ण भरोसा है। उनकी समझने की शक्ति अनंत है। 
इसलिए, युवाओं को कोई उकसा नहीं सकता। 
जब युवा चाहेंगे, तो भड़केंगे। 
विद्यार्थी, भविष्य का भी सोचें, तो क्या अंतर पड़ता है। 
एक आज, करोड़ों कल पर भारी है। 
और आज युवाओं का ही है। 
यूं तो हम प्रतिदिन हमारे 'पैसठ करोड़ नौजवानों' की बात करते नहीं अघाते। 
यूं तो हम हमेशा कहते हैं '18 वर्षीय ही तय करेंगे कि देश में कौन, कहां, कैसे विजयी होगा।' 
किन्तु उन्हें नेताओं से प्रत्यक्ष मिलने देने से रोकना चाहते हैं? 
क्यों? 
हमें डर किस बात का है? 
- असदुद्दीन ओवैैसी कहीं उन्हें आक्रोशित कर दे? 
- राहुल गांधी कहीं उन्हें भ्रमित कर दें? 
- अरविंद केजरीवाल कहीं युवाओं को कंुठित कर दें? 
कैसे-कैसे भय हैं हमारे मन में? 
कि वामपंथी उन्हें कहीं हिन्दू-विरोधी बना दें? 
कि समाजवादी कहीं छात्रों को भूखे पेट, सिर्फ आंदोलन करने का पाठ पढ़ा दें? 
कि दक्षिणपंथी कहीं इसे 'दलित' से हटाकर, विद्यार्थियों का आपसी मसला बना दें? 
तो निकल जाने दीजिए ये सारे भय, भ्रम, संदेह। 
और उसका एकमात्र तरीका है जो परिसर में आना चाहे -आने दीजिए। जो वहां, जो कुछ बोलना चाहे- बोलने दीजिए। कोई ज़हर घोलना चाहे- घोलने दीजिए। क्योंकि आपके - मेरे ज़हर घोलने से कोई ज़हर घुल ही जाएगा, ऐसा तो है नहीं। क्योंकि किसी के भड़काने से यदि कोई बड़ा समूह- युवा वर्ग- भड़कता है तो कोई बात निश्चित ही महत्वपूर्ण होगी। फिर, क्या आज 21वीं सदी में, ऐसा आसान है कि आप प्रमुख राजनीतिक दल के हों, निर्वाचित सांसद-विधायक हों -और कुछ भी बोल दें? 
हो सकता है, पत्रकार के रूप में मैं ऐसा लिख दूं। किन्तु यह एकपक्षीय ही होगा। क्योंकि इतने खुले वातावरण में, ऐसा अब हो ही नहीं सकता। इतने अखबार हैं। चैनल हैं। और सोशल मीडिया और है जो सारे संसार के लिए खुला है। कहां बचेंगे? 
अधूरा लिखने पर ही पत्रकारों क अब कोई पाठक क्षमा नहीं करते। तो असत्य लिखने पर तो क्योंकर करेंगे? 
लिखना छोड़िए -वो तो फिर भी अपनी सुविधा से संभव है -टीवी पर दिखाना भी मुश्किल है। यदि तथ्यों से परे, या कि अतार्किक होकर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया भी दिखाता है तो लोग तत्काल रद्द कर देते हैं। इसी तरह, नेताओं का आचरण देखा जाता है। 
पहले तो छात्र ही उनकी नहीं सुनेंगे। यदि सुन ली -तो मानेंगे नहीं। और मान ली -तो लागू नहीं करेंगे। और लागू कर दी तो अन्य छात्र रद्द कर देंगे। स्वीकार कौनसी बात होगी? 
वही जो सत्य हो हो - किन्तु सत्य के निकट लगेगी। वही, जो काम की लगेगी। और वही, जो युवाओं के मन को छू लेगी। मन को छू चुकी है -तो सही-ग़लत का अंतर देखना ही व्यर्थ होगा। तो मन को ही देखना उचित और सही होगा। 
क्योंकि, 
युवा मन से ही चलते हैं। 
उनके मन को नरेन्द्र मोदी की वो 'आधा ग्लास भरा है या खाली' वाली बात छू गई थी। 
तो उन्हें प्रधानमंत्री बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई। 
किन्तु उन्हें उसी दिल्ली में तमाम ऑड-इवन के परे, आम आदमी जंचे। तो उन्हें बना दिया। चाहे पहले, आधे में धोखा खा चुके थे। 
मन में गया तो इन्हीं युवाओं ने जंगल राज की समाप्ति मंे बड़ी शक्ति लगाई थी। मन बदल गया तो लालू को नीतीश से भी बड़ा बहुमत दे दिया। 
यहीतो अंतर है, युवा और बुज़ुर्ग में। 
युवा सीमाएं नहीं देखते। बुज़ुर्ग लक्ष्मण रेखाएं हों -तो भी खींच देते हैं। 
युवा के पास शक्ति है। बुज़ुर्ग के पास ज्ञान। 
युवाओं में ऊर्जा है। बुज़ुर्ग को है ध्यान। 
युवा, आशाओं पर जीते हैं। बुज़ुर्ग यादों में। 
युवा, भावनाओं पर निर्णय लेते हैं। बुज़ुर्ग कारण देखते हैं। 
विश्वविख्यातकवि रॉबर्ट ब्राउनिंग ने भले ही कहा हो - 
व्हॉट यूथ डीम्ड क्रिस्टल, ऐज फाइन्ड्स आउट वॉज़ ड्यू- 
किन्तु एेसा सच होकर भी इसलिए अच्छा लगता है युवा मन क्योंकि 'कल कहीं यह ओस की बूंद निकले' के चक्कर में मैं क्यों अपना आज का क्रिस्टल रूपी चमकदार आनंद गंवाना चाहूंगा? 
हां, युवावस्था एक अन्य संकट की अवस्था भी है। 
खोए गए अवसरों की अवस्था। 
रोए गए लम्बे वर्षों का समय। 
सोए गए व्यर्थ समय का दु:ख। 
और, तोड़े गए सपनों का त्रास। 
किन्तु इन्हीं से तो लड़ना है। 
लड़ना ही युवावस्था है। 
युवावस्था का सर्वश्रेष्ठ समय है : जब हम छात्र हैं। 
मनुष्य जीवन भर विद्यार्थी होता है। चूंकि सीखता रहता है। परीक्षा देता रहता है। किन्तु जो वास्तविक समय छात्र का होता है, वह फिर कभी नहीं हो सकता। पढ़े या ना पढ़े। लिखे या ना लिखे। सीखे कुछ या नहीं ही सीखे। 
गुजरात नवनिर्माण आन्दोलन में कौन से युवाओं ने कुछ सीखकर भाग लिया था? या कि बिहार से आरंभ संपूर्ण क्रांति में कक्षाएं छोड़कर, लाठियां खाने निकले छात्र कौनसा लाभ देख रहे थे? असम में भी कौनसा पता था कि सरकार बना लेंगे? 
अधिकार के लिए भी लड़े तो जान ही दी है आरक्षण आंदोलनों में। और लाभ कैसा, तब भी अन्याय देखकर ही तो कूदे थे। और, ऐसे समय में ही राजनेता अतिसक्रिय होते हैं। वे अन्याय की चिंगारी पर अंधेर का बारूद डाल देते हैं। फिर विस्फोट पर आंसू बहाने जाते हैं। 
फिर भी उन्हें, उनके पूरे बारूद के साथ आने दिया जाए। 
कहने दिया जाए कि मैं मुस्लिम हूं -मेरा सहपाठी हिन्दू है। उन्हें उगलने दिया जाए विष कि मैं सवर्ण हूं। मेरा साथी पिछड़ी जाति का है। 
क्योंकि अभी, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय से बाहर जब जीवन के खुरदुरे परिसर में हम युवाओं को चलना, दौड़ना और लड़ना होगा -तब तो पिछड़ी जातियां भी कई वर्गों, अनेक विशेषणों से लदी हुईं मिलेंगी। 
कभी मैं पिछड़ा होकर भी चुना नहीं जाऊंगा, क्योंकि अति पिछड़ा कोई और होगा। कभी दलित होकर इसलिए रद्द हो जाऊंगा चूंकि महादलित कोई और होगा। 
तब भी तो इन्हीं नेताओं को देखूंगा। इन्हीं कांग्रेस, भाजपा, सपा, राजद, बसपा, कपा, माकपा की कृपा चाहिए होगी। तब भी इन्ही में से किसी को चुनना होगा। इन्हीं में से किसी से लड़ना होगा। या कि इन सभी से लड़ना पड़ेगा। क्योंकि तब मैं एक भारतीय नागरिक होऊंगा। जो जाति-धर्म-भाषा-क्षेत्र से परे होगा। तो निश्चित ही, इन सभी को रास क्यों आऊंगा? 
राजनीतिसे लड़ना असंभव है -किन्तु लड़ना ही होगा। और लड़ने के लिए राजनीति, राजनेताओं से बचना नहीं, किन्तु उनका सीधा-सीधा सामना करना होगा। जो असंभव है। किन्तु करना ही होगा। 
मैंनेनहीं किया। मेरे नौजवान करेंगे।
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com

साभार: भास्कर समाचार 
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