Friday, November 30, 2018

तसल्ली से बैठ कर अवश्य पढ़ें और शेयर करें: जानिए क्यों सड़कों पर है देश का किसान, क्या है इनकी मजबूरी

साभार: जागरण समाचार 
बीते दशकों में खेती की बढ़ती लागत के मुताबिक किसानों को उसकी कीमत न मिलने के कारण देश भर में बड़ी संख्या में किसानों ने खेती-किसानी से मुंह मोड़ा है। केंद्र की मोदी सरकार द्वारा किए गए अनेक वादों के
बावजूद किसानों की समस्या जस की तस है, लिहाजा किसान बार-बार आंदोलन को मजबूर हो रहा है। खेती की राह मुश्किल होती जा रही है। इसके लिए कई कारक जिम्मेदार हैं जिनके बारे में केंद्र और राज्य सरकारों को नए सिरे से सोचना होगा।
अपनी मांगों को पूरा करवाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने के मकसद से बड़ी संख्या में किसान दिल्ली के रामलीला मैदान पहुंच चुके हैं और यदि सबकुछ ठीकठाक रहा तो वे आज संसद भवन के आसपास तक अपनी आवाज को बुलंद करने के लिए भी पहुंच सकते हैं। हालांकि पिछले करीब डेढ़ साल में देश का अन्नदाता कई बार सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर हुआ है। चाहे जून 2017 में महाराष्ट्र से लेकर मध्य प्रदेश के मंदसौर तक का आंदोलन हो, इस वर्ष दो बार हुए किसानों का मुंबई मार्च हो, जून में गांव बंद का आंदोलन हो या फिर दो अक्टूबर का दिल्ली मार्च, किसानों ने बार-बार अपनी पीड़ा को देश और सरकार के सामने रखने का प्रयास किया है। आखिर किसान इतना उद्वेलित क्यों है?
दरअसल केंद्र की सत्ता पर आसीन भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के आम चुनाव के अपने घोषणा पत्र में किसानों को फसलों की लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने का वादा किया था। परंतु सरकार ने फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किए गए एक शपथ पत्र में इस वादे को पूरा करने में असमर्थता जताई। वर्ष 2014 और 2015 के दो सालों के सूखे और 2016 में नोटबंदी ने देश के किसानों की कमर तोड़ दी। नतीजतन 2017 में देश भर में बड़े किसान आंदोलन हुए। इस बीच सरकार ने वर्ष 2019 के आम चुनाव से पहले अपने आखिरी पूर्ण बजट में किसानों के गुस्से को शांत करने के लिए लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने की घोषणा तो कर दी, परंतु इससे किसान शांत नहीं हुए, क्योंकि लागत को लेकर विवाद खड़ा हो गया।
न्यूनतम समर्थन मूल्य: फसलों की लागत तय करने वाली सरकारी संस्था ‘कृषि लागत एवं मूल्य आयोग’ (सीएसीपी) तीन किस्म की लागत निश्चित करता है। पहला, ए2 यानी खाद, बीज, कीटनाशक, ईंधन, जुताई, सिंचाई, मजदूरी आदि पर होने वाला वास्तविक खर्चा। दूसरा ए2+ एफएल जिसमें उपरोक्त ए2 लागत में किसान के द्वारा खेतों में किए गए पारिवारिक श्रम के बाजार मूल्य को भी जोड़ दिया जाता है, और तीसरा है सी2 लागत जिसमें (ए2+ एफएल) के ऊपर खेतों के किराए, किसान की पूंजी और औजारों जैसे ट्रैक्टर आदि के मूल्य पर ब्याज, अवमूल्यन आदि की गणना भी की जाती है। वास्तव में सी2 लागत ही खेती की असली लागत होती है। 
किसानों का कहना है कि वादा सी2 यानी संपूर्ण लागत का डेढ़ गुना एमएसपी देने का था। इस वर्ष धान का समर्थन मूल्य 1,750 रुपये प्रति क्विंटल घोषित किया गया है जो कि (ए2+ एफएल) लागत 1,166 रुपये का डेढ़ गुना है, परंतु धान की सी2 लागत 1,560 रुपये का डेढ़ गुना 2,340 रुपये प्रति क्विंटल बैठता है। तो धान में ही लगभग 600 रुपये प्रति क्विंटल की चोट किसानों को लगी है, और इसी प्रकार का नुकसान अन्य फसलों में भी हुआ है।
खेती की बढ़ती लागत: पिछले सालों में फसलों की लागत में भी बेहताशा वृद्धि हुई है। पिछले साढ़े चार सालों में कच्चे तेल की कीमत गिरकर 30 डॉलर प्रति बैरल तक भी आ गई थी, परंतु डीजल की कीमतों में अनुपातिक राहत किसान को नहीं दी गई जबकि डीजल फसलों की लागत का एक अहम हिस्सा होता है। इसी प्रकार खाद और खाद बनाने का कच्चा माल भी लगभग आधी कीमतों पर आयात होता रहा, परंतु सस्ते खाद आयात की कोई राहत किसानों को नहीं पहुंचाई गई। किसान की बीज, खाद, जुताई, कीटनाशक, मजदूरी आदि लागत में भारी बढ़ोतरी हुई है जबकि फसलों की कीमत उस अनुपात में नहीं बढ़ी जिससे पूरे देश में कृषि संकट खड़ा हो गया है।
आयात-निर्यात नीतियां: कृषि आयात निर्यात की नीतियां भी किसानों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं। बंपर कृषि उत्पादन के बावजूद कृषि जिंसों के निर्यात में 20 प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट दर्ज की गई जबकि आयात में 60 प्रतिशत से ज्यादा का उछाल आया। इससे कृषि जिंसों के मूल्य में भारी गिरावट हुई और किसानों की आमदनी घटी। इस बीच वर्ष 2017-18 में दालों के बंपर 245 लाख टन उत्पादन के बावजूद 56 लाख टन दालों का आयात किया गया जबकि देश में लगभग 230 लाख टन की ही खपत है। बाहर से भारी तादाद में दालों का आयात करने के परिणामस्वरूप इसके दाम गिर गए और हमारा किसान दालों को एमएसपी से दो-दो हजार रुपये प्रति क्विंटल कम कीमतों पर बेचने को मजबूर हुआ। यही मुख्य रूप से महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान के दाल किसानों की दुर्दशा का कारण बना।
गन्ना उत्पादन और चीनी: कृषि उत्पादन का गलत पूर्वानुमान भी किसानों के गले का फंदा बन गया। वर्ष 2017-18 में चीनी उत्पादन का अनुमान 250 लाख टन का लगाया गया जबकि उत्पादन 320 लाख टन का हुआ। चीनी के दाम गिर गए और गन्ना भुगतान की समस्या खड़ी हो गई। उत्पादन का पूर्वानुमान ठीक होता तो पहले ही कच्ची चीनी बनाकर निर्यात करने का प्रबंध किया जाता या अब जो इथेनॉल बनाने के लिए प्रोत्साहन दिया जा रहा है, वह पहले से ही दिया जाना चाहिए था। आज भी केवल उत्तर प्रदेश में ही लगभग 6,700 करोड़ रुपये का गन्ना भुगतान नहीं हुआ है जबकि नया सीजन शुरू हुए भी लगभग दो महीने बीत रहे हैं।
इस साल का चीनी का शुरुआती स्टॉक भी करीब 100 लाख टन है और उत्पादन फिर 320 लाख टन होने की उम्मीद है, अत: इस वर्ष देश में 420 लाख टन चीनी उपलब्ध होगी जबकि खपत केवल 260 लाख टन ही अनुमानित है। लिहाजा चीनी के दाम उठने वाले नहीं हैं और इस साल भी गन्ना किसानों का बकाया बढ़कर हजारों करोड़ रुपये होने की आशंका है। चीनी क्षेत्र की समस्या उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक के किसानों की दुर्दशा और बेचैनी को दिखाती है।
दूध की कम कीमत: देश में दूध का उत्पादन भी लगातार बढ़ रहा है, और यह 17 करोड़ टन को पार कर गया है तथा इस मामले में हम दुनिया में पहले नंबर पर पहुंच गए हैं। परंतु नोटबंदी के बाद से ही दूध के दाम 25 प्रतिशत से ज्यादा गिर चुके हैं। देश में छोटे और लघु किसान 90 प्रतिशत हैं, जिनके लिए दूध उत्पादन आय का स्थायी स्नोत है, परंतु आज दूध के दाम गिरने से ये किसान भारी नुकसान उठा रहे हैं। दूध का महत्व ग्रामीण अर्थव्यवस्था में क्या है यह इस बात से समझा जा सकता है कि अब कृषि में दूध उत्पादन की आर्थिक हिस्सेदारी गेहूं और चावल दोनों की आर्थिक हिस्सेदारी को मिलाकर भी ज्यादा बैठती है। जून में हुए किसान आंदोलन में पंजाब, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के किसानों ने दूध सड़कों पर बहाकर अपनी इस पीड़ा को व्यक्त किया था।
गौरक्षा की उत्साही नीतियों का खामियाजा भी किसानों को भुगतना पड़ रहा है। एक तरफ उनके पुराने गौवंश के दाम गिर गए हैं, इनका बाजार खत्म हो गया है, दूसरी तरफ ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे पशुओं की विकराल समस्या खड़ी हो गई है जो फसलों को भारी नुकसान पहुंचा रहे हैं। देश में दूध पाउडर का भी मांग से अधिक उत्पादन हो रहा है। सरकार यदि दो लाख टन का दूध पाउडर खरीद कर उसे स्कूलों में मिड डे मील योजना में शामिल कर दे या अफ्रीकी देशों को सहायता के रूप में भेज दे तो किसानों का भी भला हो सकता है और बच्चों को भी कुपोषण से बचाया जा सकता है।
फसल बीमा योजना: फसल बीमा योजना से भी अच्छी नीयत के बावजूद किसानों का कम, बीमा कंपनियों का ही अधिक लाभ हो रहा है। इस योजना में लागू हुए पिछले दो सालों वर्ष 2016-18 में 47,408 करोड़ रुपये के प्रीमियम के मुकाबले किसानों को केवल 31,613 करोड़ रुपये का ही मुआवजा मिला। अत: कंपनियों ने 15,795 करोड़ रुपये का लाभ कमाया। जबकि इससे पिछले दो सालों 2014-16 में 10,560 करोड़ रुपए के प्रीमियम के मुकाबले किसानों को 28,564 करोड़ का मुआवजा मिला था।
किसानों की कर्जमाफी: इन कारणों के चलते देश भर के किसानों की आमदनी घटी है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) के अनुसार वर्ष 2014-18 में औसत कृषि विकास दर केवल 2.5 प्रतिशत रही है। अत: किसान कर्ज में डूब गया है, आत्महत्या करने के लिए मजबूर है और बार-बार सड़कों पर उतर रहा है। राष्ट्रीय क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार पिछले 25 सालों में सवा तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। उसकी मांगें जस की तस हैं- पहला फसलों की ‘संपूर्ण लागत’ सी2 का डेढ़ गुना मूल्य और दूसरा संपूर्ण कर्ज माफी।
देश के किसानों का जितना कर्जा है, उतना तो धन्ना सेठों और उद्योगपतियों का बैंकों का एनपीए ही हो गया है यानी लगभग 11 लाख करोड़ रुपये। क्या देश कृषि में लगी अपनी आधी आबादी की तकलीफ दूर करने के लिए कुछ नहीं कर सकता? यह इच्छाशक्ति की कमी है, संसाधनों की या दोनों की? देश का अन्नदाता देश से इन सवालों के जवाब मांग रहा है। 
लागू की जाए स्वामीनाथन की सिफारिश: वर्ष 1991 में आर्थिक उदारीकरण के बाद से भारत में विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक वृद्धि हुई। बड़ी तादाद में विदेशी विनिवेश के कारण अनेक उद्योग-धंधों और सर्विस सेक्टर का तेजी से उभार हुआ। हालांकि यह आर्थिक उदारीकरण खेती-किसानी की दशा को नहीं बदल सका, बल्कि उसकी दशा खराब ही होती गई। लिहाजा खेती की दशा और दिशा को बदलने के लिए नवंबर 2004 में सरकार ने राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया और मशहूर कृषि वैज्ञानिक और भारत में हरित क्रांति के जनक एमएस स्वामीनाथन को इस आयोग का चेयरमैन नियुक्त किया। दो वर्ष बाद ही एमएस स्वामीनाथन ने सरकार को रिपोर्ट सौंप दी, लेकिन अब तक उस पर आंशिक तौर पर ही अमल किया गया है।
स्वामीनाथन की सिफारिशें इस प्रकार हैं: किसानों को फसल उत्पादन में लगने वाले असल मूल्य से 50 फीसद अधिक कीमत उपलब्ध कराई जाए। किसानों को अच्छी पैदावार के लिए बेहतर गुणवत्ता के बीज कम से कम दामों में मुहैया कराए जाएं। खेती की पैदावार बढ़ाने से जुड़ी जरूरी जानकारी किसानों को उपलब्ध कराने के लिए गांवों में विलेज नॉलेज सेंटर या ज्ञान चौपाल का निर्माण किया जाए। किसानों को प्राकृतिक आपदाओं की वजह से होने वाले आर्थिक नुकसान से बचाने के लिए कृषि जोखिम फंड बनाया जाए। खेती योग्य भूमि और जंगल की भूमि को कॉरपोरेट आदि काम के लिए नहीं दिया जाए। किसानों को खेती में मदद के लिए लोन का प्रावधान किया जाए और ब्याज दर को न्यूनतम किया जाए। - अध्यक्ष, किसान शक्ति संघ