एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
रविवार सुबह मैं दैनिक भास्कर नॉलेज सीरिज के तहत शनिवार को उद्बोधन देने के बाद जयपुर से विदाई ले रहा था। एयरपोर्ट पर मैंने दो विरोधी दृश्य देखें।
पहला दृश्य: लोगों का एक समूूह बतिया रहा था,ज्यादातर पुरुष थे। इस समूह ने मेरा ध्यान खींचा इसकी एक
वजह यह भी थी कि प्रौढ़ आयु की एक बुद्धिशाली और सफल महिला को उससे कहीं अधिक सफल पुरुष, जिनमें सेना के अधिकारी और वाइस प्रेसीडेंट और प्रेसीडेंट जैसे कंपनियों के शीर्ष एग्ज़ीक्यूटिव शामिल थे, घेरकर खड़े थे। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। ये सफल पुरुष जो अपने-अपने पदानुक्रम में किसी बटालियन अथवा मैनेजरों के समूहों को कंट्रोल करते होंगे, इस महिला के सामने चूहे की तरह व्यवहार कर रहे थे। मैं इस सिंड्रोम से चकरा गया, क्योंकि उस समूह में महिला का व्यवहार दबंगता या हावी होने का नहीं था लेकिन, पुरुष परोक्ष रूप से उसे वही दर्जा दे रहे थे। अपनी यात्राओं में मैंने यह सिंड्रोम बाज़ वक्त देखा है लेकिन, इसका विश्लेषण करने में नाकाम रहा। चूंकि वह समूह मेरे साथ उसी विमान में मुंबई की यात्रा कर रहा था, तो मेरे पास उनसे बातचीत करके अपना निष्कर्ष निकालने के लिए काफी समय था। इस पूरी यात्रा में अपने कॅरिअर में ये सफल पुरुष उनके द्वारा मिलकर किए जाने वाले कामोें में निर्देशों के लिए उस महिला की ओर देखते पाए गए। ऐसा लग रहा था कि वे सभी स्कूल के दिनों के साथी थे और नियमित रूप से कहीं बाहर तफरीह के लिए जाते रहे हैं। वह समृद्ध महिला अब सफल गृहिणी है और किसी समय उनकी क्लासमेट रही थी। स्कूल के दिनों में उनके जो भी रिश्ते रहे हों, मिलने पर वे आपस में उसी स्तर पर पहुंच जाते हैं। कम से कम उन्हें देखकर मुझे तो यही लग रहा था।
जब वे मिलते हैं या बतियाते हैं तो उनका मन स्कूल के दिनों में लौट जाता है और वे उस महिला को हमेशा हेड गर्ल के रूप में देखने लगते हैं- अजेय क्लास टॉपर और अंतत: आईसीएसई में अखिल भारतीय स्तर पर पहली रैंक हासिल कर उन सभी को मात देने वाली छात्रा। वे जब भी मिलते हैं तो हमेशा भूल जाते हैं कि वे वाइस प्रेसीडेंट, सीओओ या सेना में कर्नल हैं। यह महिला प्रोत्साहन देने वाले पालकों की एकमात्र संतान थी, वह जिदंगी में कभी किसी परीक्षा में दूसरे स्थान पर नहीं रही। हमेशा पहले स्थान पर आती रही और स्कूल के सारे दिनों में वह सब पर हावी ही रही।
जब लोग पीयर प्रेशर यानी अपने समकक्ष लोगों के अच्छे प्रदर्शन से महसूस होने वाले दबाव की बात करते हैं, तो मैं हंसकर इसे टाल देता हूं, क्योंकि बढ़ते दिनों में दूसरे क्रम पर आने के कारण मैंने जरूरत से ज्यादा इस तरह का 'प्रेशर' झेला है। शायद यही वजह है कि मुझे नाइकी अटलांटा ओलिंपिक 1996 का यह स्लोगन अच्छा लगता है, जो मैं आपको बता सकता हूं, 'आप सिल्वर मेडल नहीं जीतते, आप गोल्ड गंवा देते हैं।' बाद में उन्होंने इस स्लोगन पर यह कहकर पाबंदी लगा दी कि यह सच्ची खेल भावना के अनुरूप नहीं है।
दूसरा दृश्य: जो बस मुझे हवाई जहाज से सुरक्षा गेट तक ले जा रही थी उसमें अपनी मां की गोद में बैठी 18 माह की बच्ची बैगेज टैग से खेल रही थी और टैग को मां के गालों से छुआकर पूछ रही थी, 'मम्मी गुदगुली हो रही है न?' मां ने तल्खी से कहा 'नहीं।' बच्ची ने 'गुदगुली' की अपनी इस खोज पर जोर देते हुए कहा, 'मुझे तो हो रही है' और वह फिर बैगेज टैग को मां के गालों से लगाने लगी। इस उम्मीद में कि शायद गुदगुली के कुछ संकेत के रूप में मां के चेहरे पर हल्की-सी ही सही मुस्कान की कुछ रेखाएं नज़र जाएं। मां कुछ विचलित थी और बच्ची के मूर्खतापूर्ण खेल पर खुद को अपमानित महसूस कर रही थी, इसलिए नहीं कि यह वाकई मूर्खतापूर्ण था बल्कि इसलिए कि मैं उस बच्ची को उस अनमोल से बैगेज टैग से खेलते देख रहा था, जिसकी कई भारतीय विमानतलों पर आज की स्थिति में कोई कीमत नहीं है। यह मेरे देखने का उस पर होने वाला परिणाम था। लोग क्या कहेंगे कि मानसिकता से उत्पन्ना होने वाला व्यवहार। उस दो मिनट की छोटी-सी यात्रा में मां ने बच्ची को कम से कम तीन बार 'नहीं, ऐसा मत करो' कहा और तीनों बार मैंने बच्ची में वह चमक कम होती देखी जो आमतौर पर बच्चियोंमें उनके बचपन में होती है।
फिर मैंने बच्ची की मां को बताया कि अमेरिका में हुए एक सर्वे के मुताबिक बच्चे के पहले दस वर्षों में मां उससे 1.44 लाख बार 'नहीं, यह मत करो' कहती है। फिर उसे पहला दृश्य बताया जहां एक बच्ची को प्रोत्साहन मिलने पर वह पूरे जीवन मेें दंबग व्यवहार किए बिना सब पर हावी रही।
फिर मैंने बच्ची की मां को बताया कि अमेरिका में हुए एक सर्वे के मुताबिक बच्चे के पहले दस वर्षों में मां उससे 1.44 लाख बार 'नहीं, यह मत करो' कहती है। फिर उसे पहला दृश्य बताया जहां एक बच्ची को प्रोत्साहन मिलने पर वह पूरे जीवन मेें दंबग व्यवहार किए बिना सब पर हावी रही।
फंडा यह है कि 'नहीं' और 'यह मत करो' जिंदगी की यात्रा में ब्रेक की तरह हैं। उन्हें आवश्यक होने पर ही इस्तेमाल करें। उनका अनावश्यक इस्तेमाल व्यक्तित्व विकास में रोड़ा बन सकता है।
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साभार: भास्कर समाचार
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