Monday, May 15, 2017

तीन तलाक 'कुरान' और 'संविधान' दोनों के खिलाफ; इलाहबाद हाई कोर्ट दे चुका 23 साल पहले फैसला

सुप्रीम कोर्ट आजकल एक बार में तीन तलाक की वैधानिकता पर विचार कर रहा है। लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट 23 वर्ष पहले इस मुद्दे पर फैसला दे चुका है। तब हाईकोर्ट ने कहा था कि एक बार में तीन तलाक महिलाओं की
गरिमा और बराबरी के हक का हनन करता है और ये पवित्र कुरान और संविधान के खिलाफ है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने चकबंदी के एक मामले में दिए गए फैसले में मौखिक तौर पर एक बार में तीन तलाक की वैधानिकता पर 15 अप्रैल 1994 को फैसला दिया था। केस था रहमत उल्लाह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य। न्यायमूर्ति एचएन तिलहारी ने 130 पृष्ठ के फैसले में कहा है कि तलाक उल बिद्दत यानी एक बार में तीन तलाक को इस्लाम सुन्नत में पाप माना गया है और ये पवित्र कुरान के खिलाफ है। इस प्रचलन से पति को बिना किसी कारण के पत्नी को एक बार में निकाह तोड़ने वाला तीन तलाक कहने का हक मिलता है। शरीयत एप्लीकेशन एक्ट 1937 की धारा 2 के तहत मिला यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 372 के तहत जारी रहने लायक नहीं है। चूंकि इससे लिंग के आधार पर भेदभाव होता है। ये एक ऐसी गतिविधि या काम है जो प्रथम दृष्टया किसी व्यक्ति या महिला की गरिमा का हनन करती है। शरीयत की धारा 2 में वर्णित एक साथ तीन तलाक संविधान के अनुच्छेद 372 के मुताबिक अवैध होगा, अगर वो संविधान के किसी भी प्रावधान का उल्लंघन करता है। कोर्ट ने कहा था कि तीन तलाक अनुच्छेद 14, 15, (बराबरी का मौलिक अधिकार) 21 (गरिमापूर्व जीवन जीने का हक) और अनुच्छेद 51 ए (इ) (एफ)और(एच)के खिलाफ है। अनुच्छेद 51ए कहता है कि हर नागरिक का ये कर्तव्य है कि वह कोई ऐसा काम न करे जो महिलाओं के सम्मान के खिलाफ हो। सुप्रीम कोर्ट के वकील रवि प्रकाश गुप्ता कहते हैं कि इस फैसले में मुस्लिम लॉ पर एक किताब का जिक्र किया गया जिसमें ये कहा गया कि तीन तलाक की ये प्रथा उम्मीयाद राजाओं के गलत आचरण को सही ठहराने के लिए शुरू हुई थी जो कि पवित्र कुरान के एकदम विपरीत है। कोर्ट ने शरीयत लॉ के तौर पर संहिताबद्ध किये गये मुस्लिम पर्सनल लॉ के बारे में कहा है कि संविधान के आने से पहले हंिदूू मैरिज या मुस्लिम मैरिज से जुड़ा कोई भी कानून अगर किसी भी मौलिक अधिकार का हनन करेगा तो वो संविधान के आने के बाद अनुच्छेद 13 के मुताबिक अवैध या निष्क्रिय हो जाएगा। तलाक की प्रक्रिया तब तक पूरी नहीं होती जब तक कि इद्दत अवधि खत्म नहीं हो जाती। फैसले में कहा गया है कि केवल वही धार्मिक रीति रिवाज अनुच्छेद 26 में मौलिक अधिकार हैं जो धर्म का अभिन्न हिस्सा हैं। लेकिन शादी और तलाक धार्मिक गतिविधि नहीं है बल्कि धर्मनिरपेक्ष गतिविधि है जिस पर संविधान निर्माताओं ने केंद्र और राज्यों को कानून बनाने का अधिकार दिया है।
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साभार: जागरण समाचार 
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