भारतीय विज्ञान कांग्रेस के 104वें उद्घाटन समारोह में माननीय प्रधानमंत्री ने 2030 तक देश को विज्ञान के क्षेत्र में विश्व के शीर्ष तीन राष्ट्रों में देखने की इच्छा व्यक्त की थी। इसके लिए उन्होंने भावी पीढ़ी में इनोवेशन एवं सृजनात्मक विकास को बढ़ावा देने पर बल दिया। प्रधानमंत्री के इस स्वप्न को पूर्ण करने में कई चुनौतियां है, जिन्हें स्वीकारना होगा। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। मुख्य चुनौती शिक्षा के क्षेत्र में है। इस क्षेत्र में सर्व शिक्षा अभियान, स्कूल चले हम, प्रौढ़ शिक्षा एवं मध्याह्न भोजन जैसे कार्यक्रम चलाए गए। इससे स्कूलों में बच्चों का प्रवेश भी बढ़ा, किंतु गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने में सरकारें विफल रहीं। यह खामी दूर करने के लिए शिक्षा का निजीकरण प्रारंभ हुआ और धीरे-धीरे इतना व्यापक हो गया कि संविधान द्वारा प्रदत्त 'शिक्षा का अधिकार' विषमताओं की भेंट चढ़ गया। ऐसे में भारतीय शिक्षा तंत्र को पुनः मजबूत बनाने की अत्यधिक आवश्यकता है। इसके लिए भारत सरकार को शिक्षा पर किया जा रहा खर्च बढ़ाना होगा। जहां अन्य देशों में औसतन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 4.9 फीसदी शिक्षा पर खर्च किया जा रहा है, वही भारत में यह खर्च 3.3 फीसदी है, जो इतनी बड़ी आबादी को देखते हुए बहुत कम है। इसके साथ ही भारतीय शिक्षा नीति में बदलाव लाते हुए भारत में प्राथमिक शिक्षा को एक सामान बनाना होगा फिर चाहे इस कदम को अमल में लाने के लिए प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण को पूरी तरह समाप्त ही क्यों करना पड़े। यदि सभी बच्चों के लिए प्रारंभिक रेखा एक समान और गुणवत्तापूर्ण कर दें तो विषमता दूर होने से शिक्षा जगत में भेदभाव दूर होकर उत्साह का वातावरण बनेगा। प्राथमिक स्तर पर प्रायोगिक पद्धतियों का इस्तेमाल कर बच्चों में इनोवेशन रचनात्मक दृष्टिकोण का बीज बोया जा सकेगा। फिर दसवीं से बारहवीं तक खेती छोटे व्यवसायों की समस्या सामने रखकर समाधान खोजने की प्रवृत्ति पैदा कर इनोवेशन को जमीनी रूप देना होगा। ऐसा करने पर ही युवाओं को लेकर देखा गया स्वप्न चाहे वह 18वीं सदी के नरेंद्र 'स्वामी विवेकानंद' का हो या 21वीं सदी के नरेंद्र 'प्रधानमंत्री' को पूर्ण होने में नई दिशा गति मिलेगी।
(प्रतीक भालेकर, बीई स्टूडेंट,अल्मनाई राजीव गांधी टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी, भोपाल)
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साभार: भास्कर समाचार
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