मैनेजमेंट फंडा (एन. रघुरामन)
स्टोरी 1: नोटबंदी के बाद गुरुवार को मैं पहली बार बैंक पहुंचा,नई करेंसी लेने नहीं लॉकर संबंधी काम के अलावा परिस्थिति का अनुभव लेने। पिछले सप्ताह से भीड़ कम थी और जिन लोगों को करेंसी संबंधी काम नहीं थे, उन्हें
कतार में नहीं लगना पड़ रहा था। बैंक के बाहर काउंटर एम्प्लॉयी नियुक्त था, जिसका काम सर्पाकार कतार को मैनेज करना था। 11 बजे का समय था। लोग थके हुए और पसीने से भीगे हुए थे। वह कर्मचारी सभी की जरूरतों को समझने और मदद करने की कोशिश कर रहा था। लोगों को बता रहा था कि काउंटर पर कौन से दस्तावेज पेश करने होंगे। उद्देश्य यह था कि काउंटर पर परेशानी हो,उनका काम जल्द हो जाए और ज्यादा से ज्यादा लोगों का काम पूरा हो सके। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। जब कर्मचारी कतार में लगे लोगों को आईडी प्रूफ या अन्य कागजों की कमी के बारे में बताता तो लोग नाराज हो जाते और भला-बुरा कहने लगते, लेकिन कर्मचारी नज़रअंदाज कर जाता। उसे काम करने में आनंद नहीं रहा था, इसके बावजूद वह अपनी ओर से तो लोगों की मदद की कोशिश कर ही रहा था।
हालांकि सीनियर सिटिजन्स के बैठने के लिए कुर्सियां लगी थीं। सभी के लिए पीने का पानी था। पास में स्थित गुरुद्वारा सभी को मुफ्त चाय बांट रहा था। मुझे कतार में लगने की जरूरत नहीं पड़ी। अंदर मैनेजर उन लोगों पर नाराज थीं जो रोज कैश निकालने रहे थे। मैंने उन्हें यह कहते सुना कि आपको कितने कैश की जरूरत पड़ती है? इतनी जरूरत तो मेरे परिवार को भी नहीं होती। आप कई काम चेक से कर सकते हैं। रोज-रोज बैंक आकर खुद तो परेशान हो ही रहे हैं, दूसरों को भी असुविधा होती है। मैनेजर की इस बात का उन पर कोई असर नहीं हुआ और वह पैसे निकालने के लिए कतार में खड़ा ही रहा। लॉकर रूम का अपना काम होनेे के बाद मेरा सामना चार लोगों से हुआ जो बाहर तो काफी नाराज नज़र रहे थे, लेकिन अब हाथों में कैश लिए मुस्कुराते नजर आए। वे कैशियर के प्रति आभार मान रहे थे। लेकिन एक मत से उन्होंने इसे कुछ इन शब्दों में जाहिर किया- इस पूरे बैंक में आप ही एक अच्छे आदमी हैं जो लोगों की मदद कर रहे हैं। लेकिन काउंटर के कर्मचारी के पास प्रशंसा स्वीकार करने का समय नहीं था और उसने अगले ग्राहक की ओर रुख किया। क्योंकि वह जानता था कि उसके सहकर्मी ने विभिन्न स्तरों पर इनकी स्क्रीनिंग और फिल्टरिंग की है। उनके सहयोग के बिना कैश काउंटर पर इतने लोगों को संभालना संभव था।
स्टोरी 2: बड़ेबैंकों में मचे हंगामे से अलग चिल्ड्रन बैंक में नज़ारा अलग है। यह छोटा सेविंग बैंक है, 13 साल से कम उम्र के बच्चे इसे चलाते हैं। वाराणसी में वरुणा नागराम कॉलोनी में यह 2008 में शुरू हुआ था। इसमें 1800 से ज्यादा अकांउट हैं। बच्चे अपनी जरूरतों के लिए 50 से 250 रुपए निकाल सकते हैं। सालभर ये बच्चे 50 पैसे से 1 रुपए तक जमा करते हैं। डिपॉजिट के उनके प्रयासों को कई पेरेंट्स ने तब पसंद नहीं किया था, लेकिन आज ये उनके काम रहे हैं।
इन दो घटनाओं ने मुझे वह वाकया याद दिला दिया, जब राहुल द्रविड एक छोटे बच्चे के सवाल से बोल्ड हो गए थे। उसने पूछा था कि बॉलिग से ज्यादा फैमस बैटिंग क्यों है? तब जावागल श्रीनाथ ने भी बैट्समैन के प्रति नाराजगी जाहिर की थी। उन्होंने कहा था, फास्ट बॉलर्स क्रिकेट में लेबर क्लास होते हैं। मुझे नहीं पता कि द्रविड ने उस बच्चे के सवाल का क्या जवाब दिया था, लेकिन मेरा जवाब है कि बॉलर और बैट्समैन समान अहमियत रखते हैं। जैसा कि ड्रामा और फिल्म में स्क्रीन पर आने वाले और स्क्रीन के पीछे रहने वाले समान रूप से महत्वपूर्ण होते हैं।
फंडा यह है कि अगरआप अपने काम में बॉलर हैं तो एप्रिसिएशन बैट्समैन के बाद मिलेगा। बैट्समैन को तुरंत पहचान मिल जाती है।
फंडा यह है कि अगरआप अपने काम में बॉलर हैं तो एप्रिसिएशन बैट्समैन के बाद मिलेगा। बैट्समैन को तुरंत पहचान मिल जाती है।
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साभार: भास्कर समाचार
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