Wednesday, August 17, 2016

सही इलाज: कट्टरता और आतंकवाद के खिलाफ इस्लाम के भीतर से ही उठे आवाज

एन के सिंह (ब्राडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के महासचिव)

पाकिस्तान के क्वेटा में 72 घंटों में दो धमाके। आतंकवादी संगठन तहरीक-ए-तालिबान-ए पाकिस्तान (टीटीपी) के दोनों धमाकों पर हस्ताक्षर। पाकिस्तान कराह रहा है। शायद पूरी दुनिया भी। इस्लाम का कट्टरपंथी रूप पूरी दुनिया के लिए नया खतरा बन गया है। हम कायरता जनित झूठ बोलते हैं जब हम कहते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। आतंकवादी अपने अस्तित्व का आधार धर्म से लेता है, धर्म उसका वैचारिक शरणस्थली होता है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। टीटीपी भी धर्म के नाम पर ही हिंसा कर रहा है, लश्कर भी और अल कायदा भी। हाफिज सईद तो अपने को धर्म का सबसे बड़ा प्रतिनिधि बताता है। लिहाजा अगर यह सिद्ध करना है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं है तो धर्म के अनुयायियों को स्वयं आगे आकर इन्हें वही सजा देनी होगी जो किसी हत्यारे, दुष्कर्मी या ईशनिंदा करने वाले की होती है यानी सार्वजनिक रूप से संगसार करना। कट्टरपंथी इस्लाम स्वयं इस्लाम के लिए खतरा बन गया है। इसे खत्म करना इस्लाम और उसके अनुयायियों की सबसे पहली जरूरत है।

ऐसा नहीं है कि इस्लाम में उदारवादी और सुधारवादी चिंतन की कमी है। पाकिस्तान या भारत में मुस्लिम बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग है जो इस कठमुल्लेपन के खिलाफ आवाज उठा रहा है। तीन तलाक की परंपरा के खिलाफ तर्कपूर्ण लेख मुस्लिम विद्वानों द्वारा उदाहरण देकर लिखे जा रहे हैं। ऐसे ही एक ताजा लेख में वारिस मझारी ने एक किस्से का जिक्र किया है जिसमें पैगंबर मुहम्मद के साथियों में से एक रुकना बिन यज्दी ने एक बैठक में ही तीन बार तलाक कहकर अपनी बीवी को तलाक दे दिया, लेकिन जल्द ही उन्हें अहसास हुआ कि उन्होंने बड़ी गलती कर दी। वह फौरन पैगंबर साहेब के पास पहुंचे। पैगंबर ने उनसे पूछा कि कैसे तलाक दिया था तो रुकना ने बताया कि एक बैठक में ही तीन बार तलाक का उच्चारण किया था। इस पर मुहम्मद साहेव ने कहा कि यह प्रक्रिया अपूर्ण है और एक बैठक में तीन बार कहा गया तलाक एक तलाक माना जाता है। लेखक ने कुरआन के सूरा (2) आयत 229 को उद्धृत किया है, जिसके तहत अल्लाह ने कहा है कि तलाक दो बार कहा जाना चाहिए और उसके बाद पत्नी को साथ रहने का मौका होना चाहिए। आज इस्लाम के कट्टरपंथी वर्ग की गलत व्याख्या के खिलाफ उदारवादी सोच वाले मुसलमान बुद्धिजीवियों को खड़ा होना पड़ेगा। कट्टरपंथी इस्लाम को खत्म करने का एक ही तरीका है। पाकिस्तान के ही नहीं, बल्कि दुनिया के इस्लाम के 170 करोड़ अनुयायी स्वयं तनकर खड़े हों और प्रतिकार करें। अगर गैर-इस्लामी लोग इसके प्रति बदले की भावना से प्रतिकार की कोशिश करेंगे तो आतंकवादियों को मौका मिलेगा अपने को इस्लाम का रखवाला बताकर आतंक के साये में दुनिया को झोंकने का। वे दस साल के बच्चे को बरगलाएंगे और मजहब के लिए कुर्बान होने के लिए प्रेरित करेंगे? इसके बाद केवल आत्मघाती बेल्ट ही तो पहनना है इस विश्वास के साथ कि मजहब के काम के लिए अगर कुर्बान हुए तो जन्नत मिलेगी।

समस्या कुरआन शरीफ की व्याख्या को लेकर है जिसे कट्टरपंथी तत्वों ने गलत तरीके से पेश कर कट्टरवाद और आतंक को पनपाया। जब-जब इस्लाम में सुधारवादी और समय-सापेक्ष परिवर्तन के प्रयास हुए, इन कट्टरपंथियों ने उसे खारिज कर दिया। यहां सवाल यह है कि अगर कुछ लोग इस्लाम की गलत व्याख्या करके लोगों को इतना अधिक समझा-बुझा सकते हैं या जाकिर नाईक खड़ा कर सकते हैं तो सही सोच और सही व्याख्या मानने वाले इस्लाम के अनुयायी क्यों नहीं? गैरइस्लामी समाज भी मदद क्यों नहीं कर सकता है? अगर अल्लाह कहने पर जहाज से उतारा जा सकता है तो सही सोच वाले को बौद्धिकता के जहाज पर चढ़ाया भी जा सकता है। इस्लाम अध्ययन, समीक्षा और अकादमिक विश्लेषण का विषय बन ही नहीं पाया। अगर कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी पैदा भी हुए तो उन्हें इन मुल्लाओं ने खारिज कर दिया। गैर मुसलमान या आधुनिक सोच वाले थोड़े बहुत मुसलमान महज यह कहकर कुरआन की बातों को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि इसमें गत्यात्मकता (डायनेमिज्म) के लिए जगह नहीं है। फिर इनके अनुयायियों की संख्या बढ़ क्यों रही है? क्या वे आप से कमअक्ल हैं? नहीं। लेकिन हां, उनमें से ही एक बड़ा वर्ग आज बाहर आ रहा है इस्लाम की सही व्याख्या और आधुनिक परिप्रेक्ष्य में कुरआन की व्याख्या को लेकर। 

भारत में अगर मुसलमान महिलाएं तीन तलाक की शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ खड़ी हो रही हैं तो यह शुभ सूचक है। पूरी दुनिया में मुसलमानों के एक छोटे से वर्ग ने अपने को गैर-मुसलमान ऐलान करना शुरू किया है। सिर्फ यह संदेश देने के लिए कि वे मुल्लाओं की इस्लाम की गलत और शोषणकारी व्याख्या के खिलाफ हैं। पाकिस्तान के फाटा (संघ-प्रशासित कबायली प्राधिकरण) क्षेत्र में तहरीक-ए-तालिबान ने चार साल पहले ऐलान किया कि लड़कियां केवल घर में पढ़ेंगी और वह भी मात्र कुरआन की आयतें और दूसरा ऐलान था पुरुष डॉक्टर महिलाओं का शरीर नहीं छुएंगे। नतीजा यह कि इस अफगानिस्तान से सटे बड़े इलाके में पिछले सात साल से औरतें बगैर ऑपरेशन के मर रही हैं। क्या पाकिस्तान में इस्लाम के अनुयायी इसके खिलाफ तनकर खड़े नहीं हो सकते? क्या वे किसी हाफिज सईद के खिलाफ एक विरोधी आंदोलन नहीं शुरू कर सकते यह कहते हुए कि कश्मीर के बुरहान वानी की मौत से ज्यादा जरूरी है फाटा क्षेत्र की औरतों की दुर्दशा। भारत या पूरे विश्व की भूमिका इस समय इस्लाम में पुनर्जागरण को लेकर उन तत्वों के मददगार के रूप में होनी चाहिए जो मुल्लाओं के खिलाफ खड़े होना चाहते हैं। मैंने स्वयं इन तत्वों को पाकिस्तान में बेखौफ मुल्लाओं के खिलाफ जन-मंचों से बोलते सुना है जब मैं कराची में एक तकरीर में शिरकत कर रहा था। मुसलमान औरतें खड़ी हो रही हैं। हमें इन लोगों को मदद करनी होगी, सुरक्षा देनी होगी, आर्थिक और सामरिक रूप से इन्हें मजबूत करना होगा। विचारधारा की लड़ाई गोलियों से नहीं लड़ी जा सकती और इसमें राज्य के अभिकरणों की भूमिका मात्र हेल्पर की ही हो सकती है बाकी लड़ाई इस्लाम के वैज्ञानिक सोच वाले लोग ही लड़ सकते हैं। सरकार ही नहीं गैर-राज्य संस्थाओं के स्तर पर भी परोक्ष रूप से इन आधुनिक सोच वाले लोगों को कट्टरपंथी इस्लाम के खिलाफ खड़ा करना ही इस वैश्विक समस्या का निदान है।

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साभारजागरण समाचार 
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