Monday, August 8, 2016

लाइफ मैनेजमेंट: भावी पीढ़ी की खुशी को प्राथमिकता देकर उस दिशा में प्रयोग करते रहें

एन. रघुरामन (मैनेजमेंटगुरु)
वे दोनों डॉक्टर हैं। उनमें से एक तो पुणे में अस्पताल चलाते हैं। स्वाभाविक था कि जब उन्हें अपना पेशा आगे चलाने की उम्मीद के साथ क्रमश: पुत्र कन्या रत्न की प्राप्ति हुई, तो रिश्तेदारों समाज ने इसका जश्न मनाया। जूनियर सीनियर किंडरगार्टन शिक्षा के साथ शुरुआत हुई। दो साल निजी स्कूल में पढ़ाने के बाद दोनों को
अहसास हुआ कि उनके बच्चों की तो मराठी अच्छी है और अंग्रेजी। इसके अलावा दोनों पालकों ने महसूस किया कि दोनों बच्चों की अपनी ही संकृति में रुचि कम हो रही है और वे अपनी अलग ही 'आधुनिक संस्कृति' बना रहे हैं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। यह बात उन्हें विचलित कर रही थी। उन्हें अहसास हो गया था कि उनके बच्चे जड़ों से कट रहे हैं। 
मिलिए डॉ. आशीष उचगांवकर और डॉ. पुरुषोत्तम बोरहाडे, जिन्होंने अपने-अपने स्तर पर बच्चों को उस अंग्रेजी माध्यम के स्कूल, जहां वे प्री-प्रायमरी के दो साल बिता चुके थे, से निकालकर जिला परिषद शाला में भेजने का निर्णय लिया। उच्च शिक्षित दो परिवारों द्वारा लिए इस उलटे चलन का निर्णय महीनों तक पुणे में चर्चा का विषय रहा, जबकि निम्न मध्यर्गीय परिवार भी अपने बच्चों को यह 'सुनिश्चित' करने के लिए अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भेज रहे हैं कि वे कहीं चूहा दौड़ में पीछे नहीं रह जाए। यह वाकई सोचने वाली बात है कि पालक बच्चों की जरूरत पर गौर किए बिना इस दौड़ में शामिल हो जाते हैं। चूंकि ऐसी कोई रिसर्च तो थी नहीं कि अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों ने उनकी मातृभाषा के स्कूलों से बेहतर प्रदर्शन किया है, इसलिए उन्होंने 2012 में यह साहसी निर्णय लिया। अपने व्यवसाय में अच्छी तरह जमे इन डॉक्टरों को सरकारी स्कूल में दिए जा रहे नि:शुल्क यूनिफॉर्म, पाठ्यपुस्तकों और मध्याह्न भोजन से कोई लेना-देना नहीं था। उनकी एकमात्र चिंता यही थी कि बड़े होते समय उनके बच्चे कितने शांतचित्त रह पाते हैं। दस वर्षीय आदित्य बोरहाडे और अनुश्री उचगांवकर सिर्फ पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं, बल्कि वे तनावमुक्त हैं अौर इससे भी बड़ी बात यह कि वे खुश हैं। चूंकि मराठी भाषा घर कॉलोनी में तो बोली ही जाती है, पुणे शहर भी मराठी बोलने को तरजीह देता है तो इन पालकों को लगता है कि अपने बच्चों की समग्र भलाई के लिए अपने फैसले पर डटे रहना वक्त के हिसाब से एकदम ठीक है। यानी दोनों बच्चों का ज्यादातर वास्ता मराठी भाषा से ही पड़ना है। 
यदि आप रिकॉर्ड देखें तो महाराष्ट्र में पालकों पर निजी और अंग्रेजी माध्यम की स्कूलों का जुनून सवार नहीं है। सरकारी आंकड़ों में तो दावा किया गया है कि सिर्फ ये दो डॉक्टर ही नहीं, बल्कि 4 हजार से ज्यादा बच्चों ने आदित्य अनुश्री का रास्ता अपनाया है। यह चलन जहां हावी हैं उनमें शीर्ष पांच जिले हैं- ठाणे, सतारा, अहमदनगर, भंडारदरा और लातूर। सरकार तो मुंबई में भी यही चलन होने का दावा करती है, लेकिन अभी उसे इसके आंकड़े जुटाना है। दूसरी तरफ विदर्भ यवतमाल के कई हिस्सों में सेमी इंग्लिश मीडियम में शिक्षा देने वाले कई सरकारी स्कूल आक्रामक विज्ञापन के जरिये अपने यहां दी जा रही ऐसी सुविधाओं का प्रचार कर रहे हैं, जो निजी स्कूलों को पीछे छोड़ती हैं। एक अर्थ में इससे भाषाई स्कूलों में पैदा हुआ आत्मविश्वास भी झलकता है। 
नए जमाने के पालक इन स्कूलों में दी जा रही बेहतर कम तनाव देने वाली शिक्षा-पद्धति के अलावा खेल की अत्यधिक सुविधाओं की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इस मामले में सक्रिय शिक्षक और गांव कई बार सरकारी स्कूलों के समर्थन में आगे आते हैं और वे इन नकारात्मक छवि वाले स्कूलों का परिदृश्य चुपचाप बदल रहे हैं। कॉन्वेंट या अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़े पालक अचानक रोज की जिंदगी में भाषा के उपयोग का मूल्यांकन कर रहे हैं। आशीष पुरुषोत्तम जैसे डॉक्टर महसूस कर रहे हैं कि चूंकि उनके ज्यादातर रोगी स्थानीय होते हैं, वे मराठी में ही सुविधा महसूस करते हैं। उनका व्यक्तिगत आकलन चाहे जो हो, अपनी जिंदगी के बारे में एक स्पष्टता उन्हें हैं- वे अपने बच्चों को साथियों समाज की ओर से पड़ने वाले दबाव का शिकार नहीं बनाना चाहते। साथ ही वे यह भी सुनिश्चित कर रहे हैं कि मराठी भाषा में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। यह निश्चित ही अगली पीढ़ी की खुशी की िशा में अच्छा कदम है। विदेशी भाषा में शिक्षा के चलन को करीब चार दशक होने आए हैं। इसे देखते हुए यह फैसला महत्वपूर्ण है। इससे खुश रहने वाली अगली पीढ़ी निर्मित होती है या नहीं, यह अभी देखने की बात है। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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