इरशाद क़ामिल (गीतकार व शायर)
एक वक्त होता है कि आप यह ढूंढ़ रहे होते हैं कि आप जिंदगी में करना क्या चाहते हैं। जब मेरी यह खोज चल रही थी तो मुझे अहसास हुआ कि मैं शायद लिखना चाहता हूं। यह वह किशोर उम्र का दौर था जब आप जवानी में कदम रखते हैं और एक ही मोहल्ले में आपको पांच-सात जगह मोहब्बत हो जाती है। फिर आप सोचते हैं
कि किस तरह और कैसे मैं कुछ बनूं, तो जिंदगी कुछ इस तरह से शुरू हुई। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। 10वीं की परीक्षा के बाद छुटि्टयों में ऑल इंडिया रेडियो पर 'आबशार' कार्यक्रम आता था, जिसमें गज़ले, नज्में बहुत चलती थीं और मैं बहुत सुना करता था, काफी मुतासिर भी होता था कि कितनी बढ़िया बात है कि शायर दो लाइनों में कितनी बड़ी बात कर जाता है। सोचता था कि बड़ी बात करनी चाहिए और कम लफ्जों में करनी चाहिए।
जब मुंबई आने का खयाल आया तो यह था कि मैं वहां जाकर संघर्ष नहीं करूंगा। जब तक अापको पता हो कि करना क्या है और यह पता हो कि किस तरह से करना है, तब तक आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं है। अपने घर पर बैठिए और इन दो सवालों के जवाब खोजिए। अापको जवाब जरूर मिलेगा। जब आपको पता चलता है कि यह करना है तो कैसे करना है इसका तरीका भी ढूंढ़ ही लेते हैं। मैं पहली बार मुंबई गया तो स्ट्रगलर बनकर नहीं गया था यह शुक्र है मालिक का। आज से दस-बारह साल पहले की बात है। हुआ यह कि डायरेक्टर लेख टंडन चंडीगढ़ में शूट करने के लिए आए हुए थे। वह ई-मेल का जमाना नहीं था। उनका राइटर चाही गई स्क्रिप्ट उन्हें भेज नहीं पा रहा था। पूरी यूनिट खाली बैठी हुई थी। काम हो नहीं रहा है। प्रोड्यूसर का खर्च बढ़ रहा था। उन्होंने किसी को फोन करके कहा, 'यार कोई लोकल राइटर हो तो मुझे बताओ मैं थोड़ा-सा तो काम चलाऊं आगे।' इसके बाद हरियाणा कल्चरल अफेयर्स के डायरेक्टर, 'कमल तिवारीजी ने मुुझे कहा कि टंडन साहब को लेखक की जरूरत है तो तुम थोड़ी हेल्प कर दो जाकर।' मैं उन दिनों पीएचडी कर रहा था और स्कूटर उठाकर यूनिवर्सिटी के चक्कर लगाया करता था सारा दिन। उन्होंने कहा कि तुम स्कूटर उठाकर घूमते रहते हो, वहां चले जाओ कुछ काम बन जाएगा तुम्हारा। मैं टंडन साहब के पास पहुंच गया। वे कोई सीरियल कर रहे थे, जिसके डायलॉग लिखने के लिए उन्होंने मुझे कहा। मैंने उनके लिए यह काम किया। जब मैंने 20 दिन का उनका काम निपटा दिया सेट पर बैठकर तो 21वें दिन उन्होंने ट्रेन का टिकट पकड़ा दिया कि आप बॉम्बे जाओ, 15 दिन का एक शेड्यूल है वह निपटाकर वापस जाना। वह बॉम्बे का पहला टिकट भी मेरा खरीदा हुआ नहीं था। पश्चिम एक्सप्रेस, 64 नंबर बर्थ। ऐसे मैं मुंबई गया और जब वहां पहुंचा तो काम मेरा इंतजार कर रहा था। देखिए, स्कूल में मास्टर आपको तब बेंच पर खड़ा करते हैं, जब आपने होमवर्क नहीं किया होता है। अगर होमवर्क किया हो तो कहीं शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है। अगर आपने तैयारी की हो, भले वह मोहब्बत की हो, भले हो जंग की हो तो ऐसा नहीं होगा कि आप आधे रास्ते से वापस जाएंगे या आपको पराजय का मुंह देखना पड़ेगा। आपका पैशन आपको आगे बढ़ाएगा। आपकी सच्चाई, आपकी मेहनत और जो काम आप करना चाहते हैं उसकी जानकारी और मोहब्बत आपको आगे बढ़ाएगी। जितना जुनून होगा, जितना आप अपने आप से जुड़ेंगे, उतना लोग आपको पसंद करेंगे। जहां तक मेरी तैयारी का सवाल है मैं लिखना चाहता था तो दुनियाभर की किताबें पीएचडी के दौरान पढ़ चुका था। मैं रिल्के को पढ़ चुका था। रसूल हमजातोव, बाला मणि अम्मा, शिवकुमार बटालवी, वसीम बरेलवी, गालिब, मीर, सर्वेश्वरदायल सक्सेना, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल और तमाम लेखकों-कवियों को पढ़ चुका था। यह तैयारी ही तो है। अगर मुझे राइटर बनना है तो पता होना चाहिए कि कौन, क्या लिख रहा है।
लेखन प्रक्रिया की बात है तो जर्मन कवि रिल्के ने युवाओं को लिखे पत्र में लिखा है, 'ऐ मेरे दोस्त तब तक लिखना जब तक कविता तुम्हें लिने के लिए मजबूर कर दे।' जो थाट आया और बाद में याद ही नहीं रहा था तो वह थाट नहीं था कोई हवा थी, जो छूकर निकल गई। जो वाकई विचार होगा, जिसमें वज़न होगा, वह आपके साथ रहेगा। कोई विचार आता है, फिर आप उसी के बारे में सोच रहे हैं, उसी के बारे में बात कर रहे हैं। फिर आप सोचते हैं कि यह फांस की तरह मेरे दिल में चुभा हुआ है, अब तो इसको निकालना होगा। मैंने पढ़ा सबको, लेकिन यदि आप पूछें कि आप खुद को किसके नज़दीक पाते हैं तो मैं कहूंगा कि वह एक ही कवि है इरशाद कामिल। मैं नए लिखने वालों से भी कहूंगा कि आप दुनियाभर के लेखकों, कवियों को पढ़िए, किसी एक कवि या लेखक को पढ़ेंगे तो मौलिकता प्रभावित होगी। जब आप इतना पढ़ लेंगे, जब दुनियाभर के कवियों, लेखकों या कहिए कि ज्यादा से ज्यादा कवियों के बारे में पता होगा तो आपकी मौलिकता पर कोई असर नहीं होगा।
जहां तक गीत लेखन का सवाल है हर गाने का एक किस्सा होता है। 'प्रेम रतन धन पायो' मेरी जिंदगी की ऐसी फिल्म है, जिसमें हमने सिटिंग करके गीत रचे हैं। यह आज के दौर में मुश्किल होता है। इसमें सूरज बड़जात्या होते थे, हिमेश रेशमिया होते थे। मैं भी होता था। सूरजजी की टीम होती थी। हम बैठकर कौन-सा गाना किस सिचुएशन में होना चाहिए, तय करते थे। यह सब बातचीत के दौरान तय किया। मैंने काफी सफर तय किया है, लेकिन लगता नहीं कि एक मुकाम पर पहुंचा हूं। मेहनत भी काफी करता हूं। इसे भूख तो नहीं कहेंगे, ख्वाहिश कह लीजिए। भूख हवस के करीब है और ख्वाहिश अध्यात्म के करीब है। यह बड़ी आध्यात्मिक बात है। जब आप लिखते हैं तो यह एक तरह का मेडिटेशन है। जब तक आप मेडिटेशन में नहीं जाते तब तक आपसे लिखा ही नहीं जाता। आपको थोड़ी देर के लिए दुनियादारी छोड़ देनी पड़ती है। दुनिया से अपने आपको समेटना पड़ता है और अपने अंदर जाना पड़ता है। हर इंसान के साथ दो दुनियाएं चलती हंै। एक बाहर की दुनिया, एक भीतर की दुनिया। जब वह बाहर की दुनिया का साथ छोड़ देता है और भीतर की दुनिया से बात करता है तो कविता होती है। यहां तक फिल्मी गीतों की बात है, गीतकार जो लिखता है वह अपने लिए नहीं लिखता। जैसे 'गुंडे' के गीत लिखे जरूर हैं, लेकिन वे विक्रम और बाला के लिए लिखे हैं। सवाल यह है कि लोग उठाते क्या हैं। उसी फिल्म में 'मन कुंतो मौला' जैसा क्लासिकल या 'कल मीरा तड़पी' जैसा सेंसीबल गीत भी था, लेकिन यह तो सुना नहीं, 'तुने मारी एंट्रिया' सुन लिया। इसमें तो मेेरा कसूर नहीं है।
हर इंसान के साथ दो दुनियाएं चलती हैं। एक बाहर की दुनिया, एक भीतर की दुनिया। जब वह बाहर की दुनिया का साथ छोड़कर भीतर की दुनिया से बात करता है तो कविता होती है।
अगर आपने तैयारी की हो, भले वह मोहब्बत की हो, जंग की हो तो ऐसा नहीं होगा कि आप आधे रास्ते से वापस जाएंगे या आपको पराजय का मुंह देखना पड़ेगा।
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साभार: भास्कर समाचार
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